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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कहा गया है-एक लोक, एक अलोक, एक धर्म, एक अधर्म, एक दर्शन एक चारित्र, एक समय आदि । इसी प्रकार दूसरे अध्ययन में उन वस्तुओं की गणना और वर्णन आया है, जो दो-दो हैं—जैसे दो क्रियाएँ प्रादि। इसी क्रम से दसवें अध्ययन तक यह वस्तु-भेद और वर्णन दश की संख्या तक पहुंच गया है। इस कोटि को वर्णन-पद्धति की दृष्टि से यह श्रु तांग पालि बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय से तुलनीय है।
नाना प्रकार के वस्तु-निर्देश अपनी-अपनी दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। उदाहरणार्थ, ऋक्, यजुष और साम; ये तीन वेद बतलाये गये हैं। धर्म-कथा, अर्थ-कथा और कामकथा; तीन प्रकार की कथाओं का उल्लेख है। वृक्ष तीन प्रकार के बतलाये गये हैं। भगवान महावीर के तीर्थ -धन संव में हुए सात निह नवों (धर्म शासन से विमुख और अपलापक-विपरीत प्ररूपणा करने वालों) को भी चर्चा पाई है। भगवान महावीर के तीर्थ में जिन नौ पुरुषों ने तीर्थंकर-गोत्र बांधा, यथाप्रसंग उनका भी उल्लेख है। इस प्रकार संख्यानुक्रम के आधार पर इसमें विभिन्न विषयों का वर्णन प्राप्त होता है, जो अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । থাত্বা-লাঠি
आचार्य अभयदेव सूरि ( सन् १०६३ ) ने स्थानांग पर टीका लिखी आचारांग, सूत्रकृतांग, तथा दृष्टिवाद (जो उपलब्ध नहीं है) के अतिरिक्त शेष नौ अंगों पर उनकी टीकाएं हैं। वे नवांगी टीकाकार कहलाते हैं। प्राचार्य अभयदेव ने टीकाकार के उत्तरदायित्व-निर्वाह की कठिनाइयों का उसमें जो वर्णन किया है, उससे उस समय को शास्त्राव-स्थिति ज्ञात होती है। वे लिखते हैं : "शास्त्राध्येतृ-सम्प्रदायों के नष्ट हो जाने, सद्-ऊह, सद्-विवेक, सद् वितर्कणा के वियोग, सब विषयों के विवेचनपरक शास्त्रों की अस्वायत्तता, स्मरण-शक्ति के प्रभाव, वाचनाओं के अनेकत्व, पुस्तकों के अशुद्ध पाठ, सूत्रों की अति गम्भीरता तथा कहीं-कहीं मतभेद; प्रादि कारणों से त्रुटियां रह जाना सम्भावित हैं। विवेकशील व्यक्तियों ने शास्त्रों का जो अर्थ स्वीकार किया है, वही हमारे लिए ग्राह्य है, दूसरा नहीं।"
१. सम्प्रदायो गुरुक्रमः । __ सत्सम्प्रदायवहीनत्वात् सद्वहस्य वियोगतः ।
सर्वस्वपर शास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ।। वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः : सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। क्षणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तेऽनुगतो योऽर्थः सोऽस्मृवग्राह्यो न चेतरः ॥
--पृ० ४९९
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