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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ आर्य सुधर्मा : भूत-सवाहक परम्परा
कल्पसूत्र में आर्य-सुधर्मा के परिचय में कहा गया है : "काश्यप-गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी आयं सुधर्मा स्थविर अग्निवैश्यायन गोत्रीय थे। आयं सुधर्मा का जन्म ई० पू० ६०७ के आस-पास हुआ। उनका पचास वर्ष का जीवन-काल गार्हस्थ्य में बोता। तीस वर्ष वे संघीय श्रमण के रूप में रहे । भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर गौतम के द्वादशवर्षीय केबल-ज्ञान-काल में वे संघाधिपति रहे । गौतम के निर्वाण के पश्चात् आठ वर्ष तक वे केवल-ज्ञानी के रूप में रहे । इस प्रकार एक सौ वर्ष का उनका आयुष्य होता है। दिगम्बर-परम्परा में उनका केवल ज्ञान-काल दश वर्ष का माना जाता है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में दो वर्ष का अन्तर रहता है। __ वयं विषय यद्यपि यहां अद्धमागधी आगम वाङमय है; अतः ऐतिहासिक प्रसंगों की विशद विवेचना ग्राह्य नहीं है, पर कुछ पहल ऐसे हैं, जो ज्ञान संवाहकता के स्रोत से जुड़े हैं। उनको चर्चा छोड़ना समुचित नहीं है । उदाहरणार्थ, भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी गौतम थे या सुधर्मा, इस सम्बन्ध में मत-वैभिन्न है। इस पहलू पर संक्षेप में विवेचन अपेक्षित है। दिगम्बर-मान्यता
दिगम्बर-परम्परा में माना गया है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद गौतम संघाधिपति हुए और गौतम के कालगन होने के पश्चात् सुधर्मा । ईस्वी दूसरी या तीसरी शतो के यति वृषभ द्वारा रचित दिगम्बर-परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिलोयपण्णति में सर्वज्ञानियों (केवलज्ञानियों या सर्वज्ञों) की परम्परा का वर्णन करते हुए कहा है: “जिस दिन महावीर सिद्धावस्था को प्राप्त हुए, गौतम को परम ज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ। गौतम के निर्वाण-प्राप्त कर लेने पर सुधर्मा सर्वज्ञ हुए। सुधर्मा द्वारा समस्त कर्मों का उच्छेद कर दिये जाने पर या वैसा कर मुक्त हो जाने पर जम्बू स्वामी को सर्वज्ञत्व-लाभ हुआ। जम्बू स्वामी के सिद्धि-प्राप्त हो जाने के पश्चात् सर्वज्ञों की अनुक्रमिक परम्परा विलुप्त हो गयी। गौतम प्रभृति ज्ञानियों के धर्म-प्रवर्तन का समय पिण्डरूप में-सम्मिलित रूप में बासठ वर्ष का है।" १. समणस्स गं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अज्ज सुहम्मे थेरे अंतेवाती
अग्गिवेसायणगोते। २ जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परम णाणी।
जादे तस्सिं सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥ १४७६ तम्मि कवकम्मणासे जंबू सामि त्ति केवली जादो । तत्य वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा ॥ १४७७ वासठ्ठी वासाणिं गोदम पहुदोण जाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं ॥ १४७८
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