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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सम्यक् या आत्म-साधक, स्वपरिष्कारक तथा शुद्धिमूलक होते हैं । वह किसी भी शास्त्र का उपयोग अपने हित में कर लेता है। यह ठीक ही है, ऐसे पुरुष के लिए मिथ्या श्रुत भी सम्यक् श्रु त का काम करता है। जैन-तत्व-चिन्तन का यह वह वरेण्य पक्ष है, जो प्रत्येक प्रात्म-साधक के लिए समाधानकारक है।
r : Trir : वेद : भूल : संक्षिप्त परिचय
अंग प्रविष्ट तथा अगबाह्य के रूप में जिन भागम-ग्रन्थों की चर्चा की गयी है, उनमें कुछ उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उनमें कुछ नियुक्तियों को सन्निहित कर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ प्रागम-ग्रन्थों को प्रमाण-भूत मानता है। वे अंग, उपांग, छेद तथा मूल आदि के रूप में विभक्त हैं।
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अंग
अ-संज्ञा क्यों ?
अर्थ रूप में ( त्रिपद्यात्मकतया ) तीर्थंकर-प्ररूपित तथा गणधर-ग्रथित वाङमय अंगवाङमय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे अंग नाम से क्यों अभिहित किया गया ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। उत्तर भी स्पष्ट है। श्रुत की पुरुष के रूप में कल्पना की गयी। जिस प्रकार एक पुरुष के अग होते हैं, उसी प्रकार श्रुत-पुरुष के अंगों के रूप में बारह श्रागमों को स्वीकार किया गया। कहा गया है : "श्रुत-पुरुष के पादद्वय, जंघाद्वय, ऊरुद्वय, गांत्रद्वय-देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक ( पाद २+ जंघा २ + ऊरु २ + गात्रार्द्ध २ + बाहु २ + ग्रीवा १ +मस्तक १ = १२ ), ये अंग बारह हैं। इनमें जो प्रविष्ट हैं, अंगत्वेन अवस्थित हैं, वे आगम श्रुत-पुरुष के अंग हैं।" बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया। इस समय ग्यारह अंग प्राप्त हैं।
१. इह पुरुषस्य द्वादश अंगानि भवन्ति तद्यथा तु पादौ द जंघे द्वं' ऊरुणी द्व', गात्रा दौ
बांहू ग्रीवा शिरश्च एवं श्रुतपुरुषस्यापि परमपुरुषस्याचारायोनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि तथा चोक्तम्--
"पायदुर्ग जंघोरु गायद्गद्धं तु दो य बाहू य। गोवा सिरं च पुरिसो बारस अंगेसु य पविट्ठो ॥" श्रु तपुरुषस्यांगेषु प्रविष्टमंगप्रविष्टम् । अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुत भेदे ....... ।
-अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृ० ३८
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