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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:२ है कि आचार्य भद्रबाहु ने उज्जयिनी के भाद्रपद संज्ञक स्थान में समाधि-मरण प्राप्त किया। भट्ट बाहु चरित्र
आचार्य रत्ननन्दि रचित भद्रबाहु चरित्र (रचना काल विक्रम की सोलहवीं शताब्दी) में भी लगभग वृहत्कथा कोष के सदृश वर्णन है। वहां लिखा है : “माचार्य भद्रबाहु भिक्षार्थ एक घर में गये । उस सूने घर में एक साठ दिन का बच्चा झूले में झूल रहा था। वह मुनि को उदिष्ट कर बोला-चले जाओ, चले जाओ।" . आचार्य भद्रबाहु ने झट पूछा-कितने वर्ष के लिये ? बच्चे ने कहा-बारह वर्ष ।"
आचार्य भद्रबाहु ने इस निमित्त से बारह वर्षों के भयंकर दुर्भिक्ष की आशंका की। वे स्वयं बारह सहस्र श्रमणों सहित दक्षिण को प्रयाण कर गये । श्रावकों के विशेष अनुरोध पर उन्होंने रामल्य, स्थूलभद्र तथा स्थूलाचार्य को वहीं छोड़ दिया। इसी ग्रन्थ में उज्जयिनी के साजा द्वारा आचार्य भद्रबाहु से श्रमण-दीक्षा स्वीकार करने का भी उल्लेख है। वहां उसका नाम 'चन्द्रगुप्त' के स्थान पर चन्द्रगुप्ति लिखा है।
.१. प्राप्य भाद्रपदं देशं, श्रीमदुब्जयनी भवम् ।
चकारानशनं धीरः, स दिनानि बहून्यलम् ॥
समाधिमरणं प्राप्य, भद्रबाहुर्विवं ययौ। २. तत्र शून्यगृहे चैको, विद्यते केवलं शिशुः ॥
झोलिकान्तर्गतः षप्टि-दिवस प्रमितस्तदा । गच्छ गच्छ वचो वादीत्तच्छुत्वा मुनिना दुतम् ॥ शिशुरुक्ता पुनस्तेन, कियन्तोऽब्दाः शिशो! वद । द्वादशाब्दा मुने ! प्रोचे, निशम्य तद्धचः पुनः ॥
-द्वितीय परिच्छेद, श्लोक ५८-६० ३. विवित्वा विश्वसंघोऽसौ गुरुणामाशयं पुनः ।
रामल्यस्थूलभद्राख्यस्थूलाचार्या दियोगिनः॥ प्रणम्य प्रार्थयामास भक्त्या संस्थितिहेतवे । श्राद्धानामुपरोधेन प्रतिपन्नं तु तद्वचः ॥ रामल्यप्रमुखास्तस्थु सहस्रद्वादशर्षयः।
-वही, ८८-९० ४. चन्द्रावदातसत्कीर्तिश्चन्द्रवन्मोवकृन्नृणाम् ।
चन्द्रगुप्ति पस्तत्राऽचकच्चार गुणोदयः ॥ २.७ चन्द्रश्री मिनी तस्य चन्द्रमः श्रीरिवापरा। सती भतल्लिका जाता रूपादिगुणशानिली॥ २.९ गणिनोऽनुशया भूपो हित्वा संगं द्विधा सुधीः । जग्राह संयम शुद्ध साधकं शिवशर्मणः॥
-वही, ५६
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