________________
भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधो) प्राकृत और मागम वाङमय [३८९ उनके देहावसान के साथ नवम पूर्व का ज्ञान विच्छिन्न हो गया। उनका देहावसान वीरनिर्वाणाब्द ६०४ में माना जाता है। नन्दी स्थविरावली में दुर्बलिका पुष्यमित्र का उल्लेख नहीं है। नन्दी स्थविरावली वस्तुतः युगप्रधान-क्रम पर आधृत है। उसमें सम्भवतः उन्हीं का उल्लेख है, जो आचाय-पट्टाधिकारी भी थे और युगप्रधान भी। भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर लगभग एक सहस्र वर्ष पर्यन्त पूर्व-ज्ञान का अंशतः अस्तित्व रहा। तत्पश्चात् वह विच्छिन्न हो गया ।
दिगम्बर-परम्परा
पूर्व-ज्ञान के विच्छेद के सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा में स्वीकृत काल-क्रम भिन्न है। दिगम्बर एक समय-विशेष के अनन्तर एकादश अंगों का भी विच्छेद मानते हैं। इस विषय में तिलोयपण्णती में उल्लेख है। (चतुर्दश पूर्वधर परम्परा का आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ विच्छेद हो जाने के अनन्तर ) विशाल, प्रोप्टिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म; ये ग्यारह आचार्य दश पूर्वधरों के रूप में विख्यात हुए। परम्परा से इनका काल एक सौ तिरासी वर्ष का है। 2 कालक्रम से उनके दिवंगत हो जाने पर फिर भरत क्षेत्र में दश पूर्वधर-परम्परा विच्छिन्न हो गयी।
ग्यारह अगों के धारक श्रमणों को अवस्थिति के सम्बन्ध में तिलोयपण्णती में उल्लेख है : “नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कस; ये पांच आचार्य भगवान् महावीर के तीर्थ में (पूर्वोक्त परम्परा के अनन्तय ) ग्यारह अंगों के धारक हुए। इनके समय का परिमाण पिण्डरूप से कुल दो सौ बीस वर्ष का है। इनके स्वगंगामी होने पर फिर भरत क्षेत्र में कोई
१. बो (वो) लोणम्मि सहस्से, बरिसाणं वीरमोक्खगमणाउ ।
उत्तरवायगवसमे पुव्वगयस्य भवे छेदो ॥
बरिससहस्से पुण्णे, तित्थोग्गाली ए बदमाणस्स । , नासिहि ई पुत्वगतं, अणुपरिवाडो ए जं जस्स ॥
-तित्थुगाली पयन्ना, ८०१-२ २. पढमो विसाइ णामो पुढिलो खत्तिओ जओ गागो।
सिद्धत्यो धिरिसेणो विजओ बुद्धिलगंगदेवा य॥ एक्करसो य सुधम्मो वसपुव्वधरा इमे सुविखादा। पारंपरिओवगदो तेसीवि सदं च ताण वासाणं ॥
-तिलोयपण्णसी, १४८५-८६
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org