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माषा और साहित्य | आष (अद्ध मागधो) प्राकृत और आगम वाङमय [३६५
नियमों के प्रतिपादक ग्रन्थ; जो मुनियों और गृहस्थों के लिए
यथोचितरूपेण वांछनीय है। ४. द्रव्यानुयोग-जीव, अजीव, पुण्य पाप, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्वों के विश्लेषण
से सम्बन्ध रखने वाले दार्शनिक किंवा सैद्धान्तिक ग्रन्थ ।। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार आगम लुन हैं; इसलिए उन्होंने अपने उत्तरवर्ती ग्रन्थों को जिन्हें प्रामाणिक तथा श्रद्धास्पद मानते हैं, उनके विषयानुरूप इन चार अनुयोगों में निघापित किया है।
प्रथमानुयोग-महापुराण, पुराण आदि ग्रन्थ । करणानुयोग-तिलोयपण्णती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), त्रिलोकसार बादि । चरणानुयोग--मूलाचार आदि । द्रव्यानुयोग-प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि ।
संक्षेप में ही सही, प्रायः सभी सूत्रों में यत्किंचित् सभी अनुयोगों से सम्बद्ध विदारसामग्री है। कहीं किन्हीं विषयों या विचारों की प्रधानता है, किन्हीं की गौणता । व्याख्याक्रम सम्भवत: ऐसा रहा हो, सूत्रवाड्मय में जो विषय अत्यन्त गौण या सांकेतिक रूप में सूचित हैं, उनके विशद विश्लेषण तथा विस्तृत विवेचन की एक विशेष परम्परा या पद्धति थो। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि सूत्रों में मूल रूप में संक्षिप्ततया संकेतित उन-उन विषयों से सम्बद्ध, मौखिक हो सही, कोई व्याख्या-साहित्य रहा हो, जिसे उन मूल विषयों का पूरक व विश्लेषक साहित्य कहा जा सकता है तथा जिसे अध्येतृगण परम्परा से अधिगत करते रहते थे। उसके आधार पर एक ही सूत्र में चारों अनुयोग व्याख्यात होते रहे । पर, कार्य जटिल था। जहां मूल में बहुत कम शब्दावली हो, उसके
१. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमविपुण्यम् ।
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ लोकालोकविभक्त युगपारवृत्तेश्चतुर्गतीनांच । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगच ॥ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरांगम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षोच । द्रव्यानुयोगवीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥
-रलकरावकाचार, प्रथम अधिकार, ४३-४६
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