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भाषा और साहित्य ] आषं ( अद्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३६१ से २३६ वर्ष पूर्व दश पूर्वो का विच्छेद मानते हैं। श्वेताम्बर उसके बाद भी (वीर-निर्वाणान्द ५८४ तक) उनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं । आय वज्र के पश्चात् २० वर्ष तक वे नौ पूर्वो को विद्यमानता मानते हैं। उससे आगे तीन सौ छियानवे वर्ष तक वे पूर्व-ज्ञान का उत्तरोत्तर हीयमान अस्तित्व स्वीकार करते हैं अर्थात् तब तक पीर निर्वाणाब्द १००० वर्ष तक जिस किसो अश में वे पूर्व-ज्ञान की विद्यमानता में विश्वास करते हैं।
ग्यारह अंग : विद्यमानता : विच्छिन्नता
श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारह अंगों की स्थिति अब तक स्वीकार की जाती है, जब कि दिगम्बर वीस-निर्वाणाब्द ५६५ तक उनका अस्तित्व मानते हैं। उसके पश्चात् वीर-निर्वाणाब्द ६८३ तक वे आचारांगधरों की स्थिति मानते हैं । तत्पश्चात् न पूर्वज्ञान, न ग्यारह अंग और न आचारांग के परिपूर्ण वेत्ता यहां रहे । पूर्वज्ञान तथा ग्यारह अंगों का आंशिक अस्तित्व ही रहा। श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चाद्वर्ती श्रुत-प्रवर्तन के सम्बन्ध में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों परम्पराओं में बहुत अधिक मत-भेद है। दोनों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि दिगम्बर-मान्यता में वर्तमान में अंगों का अस्तित्व अस्वीकृत है और श्वेताम्बर मान्यता में स्वीकृत। . ___ क्या अनुसन्धित्सु विद्वान इस खाई को पाटने का कोई युक्तिपूर्ण और न्यायसंगत मार्ग निकाल सकते हैं ? ज्ञान और गवेषणा को प्रवृत्ति और आगे बढ़ेगी तथा यह आशा की जानी चाहिए कि इस परिपार्श्व में भी कुछ नये दिशा-बोध प्रस्तुत होंगे।
आगमों में अनुयोग अनुयोग को म
अनुयोग शब्द अनु और योग के संयोग के बना है। अनु उपसर्ग यहां आनुकूल्यार्थवाचक है। सूत्र ( जो संक्षिप्त होता है ) का, अर्थ (जो विस्तीर्ण होता है। के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग कहा जाता है । आगमों के विश्लेषण तथा व्याख्यान के प्रसंग में प्रयुक्त विषय-विशेष का द्योतक है।
१. अणु सूत्रं महानर्थस्ततो महतोऽर्थस्याणुना सूत्रेण योगोऽणुयोगः। अनुयोजन मनुयोगः ।
अनुरूपो योगोऽनुयोगः। अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः। व्याख्याने विधिप्रतिषेधान्यामर्थ प्ररूपणे।
-अभिधान राजेन्द्र, प्रथम माग, पृ०.३४०
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