________________
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
३६० ]
भद्रबाहु द्वारा पूर्वो की वाघना
आदाय भद्रबाहु के पास श्रीसंघ का सन्देश पहुंचा । वे महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे 1 उनके लिए पाटलिपुत्र आ पाना सम्भव नहीं था । उससे उनकी साधना व्याहत होती । इसलिए उन्होंने स्वीकृति दी कि वहां रहते हुए वे समागत अध्ययनार्थियों को पूर्वों की वाचना दे सकेंगे--अध्यापन करा सकेंगे । कहा जाता है, तदनुसार श्रीसंघ ने पन्द्रह सौ श्रमणों को नेपाल भेजा । उनमें पांच सौ विद्यार्थी श्रमण थे तथा प्रत्येक अध्ययनार्थी श्रमण के खान-पान आदि आवश्यक कार्यों को व्यवस्था, परिचर्या आदि के हेतु दो-दो श्रमण नियुक्त थे । इस प्रकार कुल एक हजार परिचारक श्रमण थे ।
[ खण्ड : २
आचार्य भद्रबाहु ने वाचना देना प्रारम्भ किया। आगे उत्तरोत्तर वाचना चलते रहने में कठिनाई सामने आने लगो । दृष्टिवाद - पूर्व ज्ञान को अत्यधिक दुरूहता व जटिलता तथा तदनुरूप ( तदपेक्ष ) बौद्धिक क्षमता व धारणा-शक्ति को न्यूनता के कारण अध्ययनार्थी श्रमण परिश्रान्त होने लगे । अन्ततः वे घबरा गये । उनकी हिम्मत टूट गयी । स्थूलभद्र के अतिरिक्त कोई भी श्रमण अध्ययन में नहीं टिक सका । स्थूलभद्र ने अपने अध्ययन का क्रम निरबाध चालू रखा । दश पूर्वो का सूत्रात्मक तथा अर्थात्मक ज्ञान उन्हें अधिगत हो गया। आगे अध्ययन चल ही रहा था। इस बीच एक घटना घट गयी । उनकी बहिनें जो वियां थीं, श्रमण भाई की श्रुतााधना देखने के लिए आई । स्थूलभद्र इसे पहले ही जान गये । बहिनों को चमत्कार दिखाने के हेतु विद्या-बल से उन्होंने सिंह का रूप बना लिया । बहिनें भय से ठिठक गयीं । स्थूलभद्र तत्क्षण अपने असली रूप में आ गये । बहिनें आश्चर्यचकित हो गयीं ।
आचार्य भद्रबाहु ने सब कुछ जान लिया । वे विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नहीं थे; अतः इस घटना से वे स्थूलभद्र पर बहुत रुष्ट हुए । आगे वाचना देना बन्द कर दिया । स्थूलभद्र ने क्षमा मांगी, बहुत अनुनय-विनय किया, तब उन्होंने उनको आगे के वाय पूर्वी का ज्ञान केवल सूत्र रूप में दिया, अर्थ नहीं बतलाया । स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का पाठ तो ज्ञात हो गया, पर, वे अर्थ दश ही पूर्वों का जान पाये; अतः उन्हें पाठ की दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर और अर्थ की दृष्टि से दश पूर्वधर कहा जा सकता है । इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से भद्रबाहु के अनन्तर चार पूर्वो का विच्छेद हो गया ।
Jain Education International 2010_05
प्रथम वाचना के अध्यक्ष या निर्देशक ?
ग्यारह अंगों का संकलन पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुआ । इसे प्रथम वाचना कहा जाता है । इसकी विधिवत् अध्यक्षता या नेतृत्व किसने किया, स्पष्ट ज्ञात नहीं होता । आचार्य भद्रबाहु विशिष्ट योग साधना के सन्दर्भ में नेपाल गये हुए थे, अतः उनका नेतृत्व तो सम्भव था ही
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org