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३८४] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन
[खण्ड: २ फेंक दिया 11 कमड़ डान्थ राजावली
कन्नड़ भाषा में राजावली नामक ग्रन्थ है, जिसमें आचार्य भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त का कथानक है। राजावलो शक संवत् १७५१ को रचना है। इसके रचयिता देवचन्द्र हैं। अधिकांश वर्णन भद्रबाहु-चरित्र जैसा है। कुछ नये समावेश भी हैं। उदाहरणार्थभद्रबाहु चरित्रकार ने उज्जयिनी के राजा चन्द्रगुप्त (चन्द्रगुप्ति) के सोलह स्वप्नों का वर्णन किया है, वहां राजावलीकार ने उन (स्वप्नों) का सम्बन्ध पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त से जोड़ा है।
भिन्न-भिन्न आधारों पर जो उल्लेख किया गया है, उससे यह तथ्य समर्थित नहीं होता कि श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु-दक्षिण गये, वहां टिके, दिवंगामी हुए। वृहत्कथाकोषकार आचार्य भद्रबाहु के उज्जयिनी क्षेत्र में दिवंगत होने का उल्लेख करते हैं, जब कि भद्रबाहु. परित्रकार उनकी दक्षिण-यात्रा के बीच मार्ग में उनके समाधि-मरण की चर्चा करते हैं। ये परस्पर टकराने वाले तथ्य हैं। वृहत्कथाकोषकार ने आचार्य भद्रबाहु द्वारा रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य को सिन्धु मादि देशों में भेजे जाने का संकेत किया है और भद्रबाहुचरित्रकार ने उन्हें उज्जियिनी में ही रखा है। इतना ही नहीं, उन्होंने स्थूलवृद्ध को स्थूलभद्र तथा भद्राचार्य' को स्थूलाचाय तक बना दिया है । भद्रबाहुचरित्रकार द्वारा ये नाम परिपर्तित रूप में कैसे दिये गये, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न उभरता है, जब कि उनसे पूर्ववर्ती लेखक स्थूलवृद्ध और भद्राचाय ही प्रयुक्त करते आये हैं।
चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध एक विशेष प्रश्न उपस्थित होता है-उसका सम्बन्ध पाटलिपुत्र से था या उज्जयिनी से । दिगम्बर लेखकों का झुकाव चन्द्रगुप्त को उज्जयिनी का मानने की ओर अधिक है। केवल कन्नड़ ग्रथ राजावली के लेखक देवचन्द्र ही ऐसे हैं, जिनके अनुसार षोडस स्वप्न-द्रष्टा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध पाटलिपुत्र से था-वह वहां का राजा था। १. कुपितास्ते तदा प्रोचुर्वर्षीयानेष वेत्ति न ।
वक्तीत्य वातुलीभूतो वार्धक्ये वा मतिभ्रमात् ॥ वृद्धोऽयं यावदत्रास्ति तावन्नो न सुखस्थितिः । इति संचिन्त्य ते पापास्तं हन्तुं मतिमादधुः ।। दुष्टश्चण्डेः शिष्यौदण्डैदण्डैह तो हठात् । जीर्णाचार्यस्ततो क्षिप्तो गर्ते फूटेन तत्र वै॥
-चतुर्थ परिच्छेद, १६-१८
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