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भाषा और साहित्य] आष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [१५३ आकाशवाणी
आचार्य भद्रबाहु संघ-सहित दक्षिण की ओर बढ़े जा रहे थे कि एक जंगल को पार करते समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी। उससे उन्होंने जाना कि उनकी आयु बहुत कम भेष रही है । उन्होंने दशपूर्व धर विशाखाचार्य को गम्भीर्य आदि अनेक सद्गुणों से युक्त जान कर धर्मसंघ की सारणा-वारणा के लिए अपने पद पर अधिष्ठित कर दिया । गुरुभक्त, नवदीक्षित मुनि चन्द्रगुप्ति उनकी सेवा में रह गया । थोड़े समय बाद आचार्य भद्रबाहु ने वहीं समाधि-मरण प्राप्त किया ।
विशाखाचाय दक्षिण की ओर बढ़ते-बढ़ते जैन शासन को उद्दीप्त तथा नव-दीक्षितों को अध्यापित करते हुए चोल देश पहुंचे। उनके दक्षिण देश में पर्यटन करते, प्रवास करते तथा धर्म-प्रसार करते हुए बारह वर्ष का समय व्यतीत हो गया। तदनन्तर विशाखाचाय के नेतृत्व में संघ वापिस (उज्जयिनी) लोट आया। पीछे रहे साधुओं में शिथिलता आ गयी थी। विशाखाचाय ने उन साधुओं को समझाने का प्रयत्न किया कि इस प्रतिकूल (शास्त्रविरुद्ध) चर्या का परित्याग कर दें। पर, वे सुविधा-भोगी मुनि नहीं माने । जब स्थूलाचार्य ने भी उन्हें समझाने की चेष्टा की, तो वे उबल पड़े और उन्हें डण्डों से पीटते-पीतते गढ़ में
१. अथाऽसौ विहरन्स्वामी भद्रबाहुः शनैः शनैः ।
प्रापन्महाटवीं तत्र शुश्राव गगन-ध्वनिम् ॥ श्रुत्वा महाद्भुतं शब्दं निमित्तज्ञानतः सुधीः । आयुरल्पिष्ठमात्मीयमज्ञासोद्बोधलोचनः ॥ तदा साधुः समाहूय तत्रैव सकलान्मुनीन् । विशाखाचार्य मापन्नं ज्ञात्वा सद्गुणसम्पदा ॥ वशपूर्वधरं धीरं गम्भीर्यादिगुणान्वितम् । स्वकीयगणरक्षार्थ स्वपदे पर्यकल्पयत् ॥
-तृतीय परिच्छेद, १-४ २. चन्द्रगुप्तिस्तदावादी द्विनयान्नवदीक्षितः ।
द्वादशांव्दं गुरोः पादौ पर्युपासेऽति भक्तितः ॥ गुरुणा वार्यमाणोऽपि गुरुभक्तः स तस्थिवान् । गुरु शिष्टिवशाहन्ये तस्माच्चेलुस्तपोधनाः॥
-वही, ८-६ १. समाधिना परित्यज्य देहं गेहं रुजां मुनिः । नाकिलोकपदं प्राप्तो देवदेवीनमस्कृतम् ॥
-वही, ३९
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