________________
३६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ सम्बन्ध में विशेषावण्यक भाष्य में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है : "स्त्रियां तुच्छ, गर्वोन्नत और चंचलेन्द्रिय होती हैं। उनकी मेघा अपेक्षाकृत दुर्बल होती है; अतः उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय या चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है।"
भाष्यकार ने स्त्रियों की किन्हीं तथाकथित दुर्बलताओं को ओर लक्ष्य किया है। उनका तुच्छ, गवंबहुल स्वभाव, चपलेन्द्रियता और बुद्धिमान्ध भाष्यकार के अनुसार वे हेतु हैं, जिनके कारण उन्हे दृष्टिवाद का शिक्षण नहीं दिया जा सकता।
विशेषावश्यक भाष्य की गाथा ५५ की व्यास्या करते हुए मलधारी भाचार्य हेमचन्द्र जो लिखा है, उसका सारांश इस प्रकार है : "स्त्रियों को यदि किसी प्रकार दृष्टिवाद श्रुत प्राप्त करा दिया जाए, तो तुच्छता आदि से युक्त प्रकृति के कारण वे भी दृष्टिवाद की अध्येता हैं, इस प्रकार मन में अभिमान ला कर पुरुष के परिभव-तिरस्कार आदि में प्रवृत्त हो जाती हैं । फलतः उन्हें दुर्गति प्राप्त होती है। यह जानकर दया के सागर, परोपकारपरायण तीमकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय-चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद स्त्रियों को देने का निषेध किया है। स्त्रियों को श्रुत-ज्ञान प्राप्त कराया जाना चाहिए, यह उन पर अनुग्रह करते हुए शेष ग्यारह अंग आदि वाङ्मय का सर्जन किया गया।
भाध्यकार आचार्य बिनभद्रग णी क्षमाश्रमण तथा वृत्तिकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रकृति, प्रवृत्ति, मेघा भादि की जो भालोचना की है, वह विमर्श-साक्षेप है, उस पर तव्यान्वेषण की दृष्टि से ऊहापोह किया जाना चाहिए। गवं, चापल्य तथा बुद्धिदौर्बल्य या प्रतिभा की मन्दता आदि स्त्री-धर्म ही हैं, यह कहा जाना तो संगत नहीं लगता । पर, प्राचीन काल से ही सामान्य लोक-मान्यता कुछ इसी प्रकार की रही है । गर्व का अभावऋजुता, जितेन्द्रियता और बुद्धि-प्रकर्ष संस्कार-लम्य भी हैं और अध्यवसाय-गम्य भी। वे केवल पुरुष नात्याश्रित ही हों, यह कैसे माना जा सकता है ? स्त्री जहां तीर्थकर नाम कर्म तक का बन्ध कर सकती है अर्थात् स्त्री में तीर्थकर-पद, जो अध्यात्म-साधना की सर्वोच्च सफल कोटि की स्थिति है, तक अधिगत करने की क्षमता है, तब उसमें उपर्युक्त दुर्बलताए आरोपित कर उसे दृष्टिवाद-श्रुत की अधिकारिणी न मानना एक प्रश्न-चिह्न उपस्थित करता है।
१. तुच्छा गारवबहुला चलिंबिया दुब्बला घिईए य । इति आइसेसज्झषणा भूयावाओ य नो त्पीणं ॥
-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५२
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org