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भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अद्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३६७ नारी और हष्टवाद : एक और चिन्तन
प्रस्तुत विषय में कतिपय विद्वानों की एक और मान्यता है। उसके अनुसार पूर्व-ज्ञान लब्ध्यात्मक है। उसे स्वायत्त करने के लिये केवल अध्ययन या पठन हो यथेष्ट नहीं है, अनिवार्यतः कुछ विशेष प्रकार की साधनाए भी करनी होती हैं, जिनमें कुछ काल के लिए एकान्त और एकाकी वास भी आवश्यक है। एक विशेष प्रकार के दैहिक संस्थान के कारण स्त्री के लिये यह सम्भव नहीं है। यही कारण है कि उसे दृष्टिवाद सिखाने की आज्ञा नहीं है। यह हेतु अवश्य विचारणीय है। पूर्व-रचना : काल-तारतम्य
पूर्षों की रचना के सम्बन्ध में आचारांग-नियुक्ति में एक और संकेत किया गया है, जो पूर्व के उल्लेखों से भिन्न है। वहां सर्वप्रथम आचारांग की रचना का उल्लेख है, उसके अनन्तर अंग साहित्य और इतर वाङमय का । जब एक ओर पूर्व वाङमय की रचना के सम्बन्ध में प्राय: अधिकांश विद्वानों का अभिमत उनके द्वादशांगी से पहले रचे जाने का है, वहां आचारांग-नियुक्ति में सबसे पहले आचारांग के सर्जन का उल्लेख एक भेद उत्पन्न करता है । अभी तो उसके अपाकरण का कोई साधक हेतु उपलब्ध नहीं है; इसलिये इसे यहीं छोड़ते हैं, पर, इसका निष्कर्ष निकालने को ओर विद्वज्जनों का प्रयास रहना चाहिए।
सभी मतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है कि पूर्व-वामय की परम्परा सम्भवतः पहले से रही है और वह मुख्यतः तत्ववाद की निरूपक रही है। वह विशेषतः उन लोगों के लिये थी, जो स्वभाषतः दार्शनिक मस्तिष्क और तात्विक रुचि-सम्पन्न होते थे। सर्वसाधारण के लिए उसका उपयोग नहीं था। इसीलिए बालकों, नारियों, वृद्धों, अल्पमेधावियों या गूढ़ तत्व समझने की न्यून क्षमता वालों के हित के लिए प्राकृत में धर्म-सिद्धान्त की अवतारणा हुई, जैसी उक्तियां अस्तित्व में आई11 पूर्व वाङमय की भाषा - पूर्व धाड मय अपनी अत्यधिक विशालता के कारण शब्द-रूप में पूरा-का-पूरा व्यक्त किया जा सके, सम्भव नहीं माना जाता। परम्परया कहा जाता है कि मसी पूर्ण की इतनी विशाल राशि हो कि अंबारी सहित हाथी भी उसमें ढंक जाये, उस मसी-चर्ण को जल में घोला जाए और उससे पूर्व लिखे जाए, तो भी यह कभी शक्य नहीं होगा कि वे लेख में
१. नालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥
-वशवका लिक वृत्ति, पृ० २०३
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