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भाषा और साहित्य] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३६५
द्वादशांगी से पूर्व-पहले यह रचना की गई; अत: ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूओं के नाम से विख्यात हुए । श्रत-ज्ञान के कठिन, कठिनतर और कठिनतम विषय शास्त्रीय पद्धति से इनमें निरूपित हुए । यही कारण है, यह वाडमय विशेषतः विद्वत्प्रयोज्य था, साधारण बुद्धिवालों के लिये यह दुर्गम था; अतएव इसके आधार पर सर्वसाधारण के लाभ के लिए द्वादशांगी की रचना की गई । आवश्यक-नियुक्ति-1 विवरण में आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में जो लिखा है, पठनीय है। दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश
द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है१. परिकम, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग,४. पूर्वगत और ५. चूलिका । चतुर्थं विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्व-ज्ञान का समावेश माना गया है । पूर्वज्ञान के आधार पर द्वादशांगी को रचना हुई, फिर भी पूर्व ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा। यही कारण है कि अन्तत: दृष्टिबाद में उसे सत्रिविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्व-ज्ञान के महत्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे।
विशेषावश्यक भाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोग-ज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाड मय अन्तभूत है। परन्तु, अल्प बुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रत का नि!हण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङमय का सर्जन हुआ। स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का वर्जन
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद का शिक्षण देना धजित था। इस १. ननु पूर्व तावत् पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरूपनिबध्यन्ते, पूर्व करणात् पूर्वाणीति
पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात्, पूर्वेषु च सकलवाङ्मयस्यावतादो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं, ततः किं शेषांगविरचेननांगबाह विरचनेन वा ? उच्येत; इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात्, तेषां च दुर्मेधवत्वात्, स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात् ।
-पृ० ४८, प्रकाशक, आगमोवय समिति, बम्बई २. जइवि य भूयावाए सव्वस्स व ओगयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य॥
-विशेषावश्यक भाज्य, गाथा ५५१
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