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भाषा और साहित्य ] आष ( अर्द्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३५५ निर्धारित किया था। इस वैज्ञानिक पाठ क्रम के कारण ही वेदो का शाब्दिक कलेवर आज भी अक्षुण्ण विद्यमान है। ___ जैन आ गमज्ञों ने इसे भलीभांति अनुभव किया। उन्होंने भी आगमों के पाठ या उच्चारण के सम्बन्ध में कुछ ऐसी मर्यादाएं, नियमन या परम्पराए' बांधीं, जिनसे पाठ का शुद्ध स्वरूप अपरिवत्यं रह सके ।
3 नुयोगद्वार सूत्र में आगमतः द्रव्यावश्यक के प्रसंग में सूचित किया गया है कि आगमपाठ की क्या-क्या विशेषताए हैं। वे इस प्रकार हैं :
१. शिक्षित- साधारणतया पाठ सीख लेना, उसका सामान्यतः उच्चारण जान लेना। २. स्थित-सीखे हुए पाठ को मस्तिष्क में स्थिर करना ।
३ जित-क्रमानुरूप आगम-वाणी का पठन करना। यह तभी सधता है, जब पाठ
___ जिम-वर्शगत-अधिकृत या स्वायत्त हो जाता है। ४. मित-मित का अर्थ मान परिमाण या माप होता है। पाठ के साथ मित्त विशेषण
जुड़ने का आशय पाठगत अक्षर आदि की मर्यादा, नियम, संयोजन आदि
जानना है। ५. परिजित-अनुक्रमतया पाठ करना सरल है। यदि उसी पाठ का व्यतिक्रम से या
व्युत्क्रम से उच्चारण किया जाए, तो बड़ी कठिनता होती है। यह तभी सम्भव होता है, जब पाठ परिजित अर्थात् बहुत अच्छी तरह अधिकृत हो ।
अध्येता को व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से पाठ करने का भी अभ्यास हो। ६. नामसम-हर किसी को अपना नाम प्रतिक्षण, किसी भी प्रकार की स्थिति में सम्यक
स्मरण रहता है । वह प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसात् हो जाता है । अपने नाम की तरह आगम-पाठ का आत्मसात् हो जाना । ऐसा होने पर अध्येता किसी भी समय पाठ का यथावत् सहज रूप में उच्चारण कर सकता है ।
१. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'वेद और उनकी भाषा' शीर्षक विवेचन २. आगमओ वव्वावस्सयं-जस्स " आवस्स एति पद-सिक्खतं, ठितं, जिलं, मितं, परिजितं, नामसमं, घोससमं, अहोणक्खर, अणच्चक्खर, अब्वाइद्धषखरं, अवखलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंट्ठोट्ठविप्पमुक्कं गुरु वायणोवगयं ।
-अनुयोगद्वार सूत्र, ११
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