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३६२] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २ गुणन-परावर्तन, धारण-स्मरण, दान, पृच्छा आदि सध सकते हैं। इसी कारण गणधरों ने श्रुत की अविच्छिन्न रचना की। उनके लिए बेसा अवश्य करणीय था, क्योंकि उन (गणधरों) की वैसी मर्यादा है। गणघर-नाम-कर्म के उदय से उनके द्वारा श्रुत-रचना किया जाना अनिवार्य है । सभी गणधर ऐसा करते रहे हैं।'
स्पष्टीकरण के हेतु भाषयकार जिज्ञासा-समाधान की भाषा में आगे बतलाते हैं : "तीर्थकर द्वारा आख्यात वचनों को गणधर स्वरूप या कलेवर देते हैं। फिर उनमें क्या विशेषता है ? यथार्थता यह है कि तीर्थकर गणधरों की बुद्धि की अपेक्षा से संक्षेप में तत्वा ख्यान करते हैं, सर्वसाधारण हेतुक विस्तार से नहीं। दूसरे शब्दों में अर्हत् ( सूक्ष्म ) अर्थभाषित करते हैं । गणधर निपुणतापूर्वक उसका ( विस्तृत ) सूत्रात्मक ग्रथन करते हैं। इस प्रकार धर्म-शास्त्र के हित के लिए सूत्र प्रवर्तित होते हैं।"
१. तं नाणकुसुमवुद्धिं घेतुं बीयाइबुद्धओ सव्वं ।
गंयंति पवयणट्ठा माला इव चित्तकुसुमाणं ॥ पगयं वयणं पवयण मिह सुयनाणं कह' तय होज्जा । पवयणमहवा संघो गति तयणुग्गट्टाए। घेतुं व सुहं सुहगुणणधारणा दाउं पुच्छिउं चेव । एएहिं कारगेहिं जीयं ति कयं गणहरेहि ॥ मुक्ककुसुमाण गहणाइयाई जह दुक्कर करेउ जे। मुच्छाणं च सुहयर तहेव जिणवयणकुसुमाणं ॥ पय-वक-पगरण-उझाय-पाहुडाइनियत कमपमाणं । तवणुसरता सुहं चिय घेप्पइ गहियं इदं गेझ । एवं गुणणं धरणं धाणं पुच्छा य तदणुसारेण । होइ सुहं जीयंति य कोयव्वमियं जओऽवस्सं ॥ सव्वेहिं गणहरेहिं जीयंति सुयं जओ न वोच्छिन्न । गणहरमज्जाया वा जीयं सव्वाणुचिन्नं वा ॥
-विशेषावश्यक भाष्य, ११११-१७ २. जिणमणिइ च्चिय सुतुं गणहरकरणम्मि को विसेसो त्थ ।
सो तदविक्खो भासइ न उ वित्थर औ सुय किं तु॥ अत्थं भासइ अरहा सुत्तुं गंथं ति गणहरा निउणं । सासणस्स हिपढाए तो सुत्तं पवत्तेई ॥
--वही. १११८-१९
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