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भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२९१ तक गिनाई गयी है। अथर्व-वेद में भी इस प्रकार के संकेत प्राप्त होते हैं, जिनमें छन्दों की संख्या तक का उल्लेख है । वहां एक स्थान पर छन्दों की ग्यारह संख्याए सूचित की गयी हैं। उपनिषद एवं ब्राह्मण ग्रन्थ
छान्दोग्योपनिषद् में अक्षर व ईकार, ऊकार एवं एकार संज्ञाओं तथा तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्ण, स्वर, मात्रा व बल की चर्चा है। ऐतरेह ब्राह्मण में ओं को अकार, उकार तथा मकार के संयोग से निष्पन्न कहा है । शतपथ ब्राह्मण में एकवचन, बहुवचन, तीन लिंग आदि का विवेचन है। पंचविंश ब्राह्मण आदि में भी ऐसी सूचनाएं प्राप्त होती हैं, जिनसे लेखन-कला का अस्तित्व प्रमाणित होता है। ये ग्रन्थ निरुक्तकार यास्क और मष्टाध्यायीकार पाणिनि से पूर्ववर्ती माने जाते हैं । इससे अनुमित होता है कि वैदिक काल, उपनिषद्काल और ब्राह्मण काल में भारतवर्ष में लिपि-कला प्रचन्ति थी।
तत्परक इतर वाङमय
रामायण और महाभारत बहुत प्राचीन माने जाते हैं। फिर भी उन्हें यदि उतना प्राचीन न माना जाये तो कम-से-कम ई० पू. ४००-५०० तक तो उनका अस्तित्व सम्पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुका था। उनमें भी लिपि-कला सूचक उल्लेख हैं।
संस्कृत-व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ अष्टाध्यायी है । उसके रचयिता पाणिनि थे। गोल्डस्टुकर ने अष्टाध्यायो का रचना-काल बुद्ध से पूर्व माना है। डा. बासुदेव शरण अग्रवाल ने उसका समय ई० पू० ४००-४३० स्वीकार किया है। उन्होंने पाणिनि-कालीन भारत नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ में प्रस्तुत विषय पर भी प्रकाश डाला है, जो पठनीय है। लिपि, लिपिकर, उन्हीं के परिवर्तित रूप लिबि, लिविकर आदि का अष्टाध्यायी में उल्लेख भाया है। वहां यवनानी शब्द बनाने के सम्बन्ध में भी नियमोल्लेख है । पातिककार कात्यायन और महाभाष्यकारा पतंजलि ने यवनानी का तात्पर्य यवनों को लिपि बतलाया है। ग्रन्थ आदि शब्द भी वहां आये हैं । इन सबसे पाणिनि के समय में भारत में लिपिशान था, यह सूचित होता है।
प्रो० मैक्समूलर ने पाणिनि का समय ई० पू० चार सौ वर्ष माना हैं। उन्होंने लिखा है कि अष्टाध्यायी में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है, जिससे लिपि-ज्ञान का अस्तित्व सूचित होता हो । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के उक्त ग्रन्थ के प्रकाशन के पश्चात् इस सम्बन्ध में सब स्पष्ट हो गया है । वस्तुतः प्रो० मैक्समूलर की उक्त धारणा भ्रान्त थी। सम्भवतः टाध्यायी का उस दृष्टिकोण से वे सूक्ष्म अनुशीलन न कर पाये हों।
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