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३१४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २ अध्यक्त वचनता रहित, सर्वाक्षरसमन्वययुक्त, पुण्यानुरक्त, सर्वभाषानुगामिनी, योजनपर्यन्त श्रूयमाण अद्धमागधी भाषा में बोलते हैं, धर्म का परिकथन करते हैं । भगवान् वहां उपस्थित सभी आर्यों, अनार्यों को अग्लान रूप में धर्म का उपदेश करते हैं। वह अद्ध'मागधी भाषा उन सभो मार्यों, अनार्यों की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।'
आचार्य हेमचन्द्र ने जिस प्रकार काव्यानुशासन के मंगलाचरण में जैनी वाक्, जिसकी उन्होंने स्वयं अद्धमागधी भाषा के रूप में व्याख्या को है, को सर्वभाषापरिणताम् पद से प्रशस्तता प्रकर की है, उसी प्रकार अलंकार-तिलक के रचयिता वाग्भट ने सर्वज्ञाश्रित अद्धमागधी भाषा की स्तवना करते हुए भाव व्यक्त किये हैं : "हम उस अद्धमागधी भाषा का आदरपूर्वक ध्यान-स्तवन करते हैं, जो सब की है, सर्वज्ञों द्वारा व्यवहृत है, समग्न भाषाओं में परिणत होने वाली है, सार्वजनीन है, सब भाषाओं का स्रोत है।"
एक विशेष कथन-परम्परा को ज्ञापित करने को दृष्टि से उपयुक्त प्रसंग उद्धत कय गए हैं । भाषा-प्रयोग की अनेक विधाए होती हैं । जहां श्रद्धा, प्रशस्ति तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहां भाषा अर्थवाद-प्रधान ( Super lative ) हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता । पर, जहां भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप में समझ लें, तो कठिनाई नहीं होती। इसो दृष्टिकोण से ये प्रसंग श य और व्याख्येय हैं । महावीर इस युग के अन्तिम तोयंकर थे। इस समय उपलब्ध अद्धमागधी आगम-वाङमय उन्हीं की देशना पर आधृत है।
प्रत्यागम : सुत्तागम
आगम दो प्रकार के कहे गये हैं- १. अत्यागम (अर्थागम), २. सुत्तागम (सूत्रागम)।
१. समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रणो भंमासार पुत्तस्स.............."सारदनवत्थणिय
महुरगभीर कोचणिग्योसदुंदुभिस्सरे उवेवोत्थडाए करे वटियाए सिरे समाईणाए अगरलाए अमम्मणाए सवखरसणिवाईयाए पुणरताए सबभासाणु गामणिए सरस्सईए जोयण्णहारिणासरेणं अदमागहाए भाषाए भासंति अरिहा धम्म परिकहेंति तेसिं सम्बे सिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म-माइक्खंति । सा वि य गं अर्द्ध मागहा मासा तेसि सव्वेसिं आरियमणारियाणं अपणो सभासाए परिणमंति।
–औपपातिक सूत्र, पृ० ११७, ११८ २. सर्वार्धमागधों सर्व भाषासु परिणामिनीम् । सार्वीयां सर्वतोवाचं सार्वज्ञों प्रणिदध्महे ॥
-अलंकार-तिलक, १.१
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