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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन जैन परम्परा में ऐसा भी प्राप्त होता है कि चक्रवर्ती चक्रवर्तित्व साध लेने के अनन्तर पर्वत पर अपना नामोल्लेखन करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में एक ऐसा ही प्रसंग है, जहां भरत चक्रवर्ती द्वारा ऐसा किये जाने का वर्णन है। वहां लिखा है :.........."तत्पश्चात् राजा भरत ने अपने अश्वों को निगृहीत किया, उन्हें मोड़ा और वह ऋषभकूट पर्वत के पास आया। अपने रथ के अग्रभाग से ऋषभकूट पर्वत का तीन बार स्पर्श किया और अश्वों को रोका। फिर छः तल वाले, बारह अंश वाले, आठ कोने वाले, अधिकरणी' के समान आकार वाले, सुन्दर वर्ण वाले काकिणी रत्न को लिया। उसे लेकर ऋषभकूट पर्वत की पूर्व दिशा के समतल भाग में लिखा : ''मैं भरत नामक चक्रवर्ती हूं। इस अवसर्पिणीकाल में तृतीय आरे के पश्चिम भाग में प्रथम राजा हूं। भरत क्षेत्र का अधिपति हूं। नरवरेन्द्र हूं। मेरा कोई प्रतिशत्रु नहीं है। मैंने भरत क्षेत्र को विजिवत किया है। इस प्रकार उसने आलेखन किया। आलेखन कर अपने रथ पर लौट आया।"
कल्पसूत्र की टीका में भगवान् गहावीर के जीवन-वृत्त के प्रसंग में लिखा है कि जब वे आठ वर्ष के हुए, तब उनके पिता सिद्धार्थ ने महोत्सव पूर्वक उन्हें लेखशाला भेजा । अध्यापक को बहुमूल्य उपहार दिये और लेखशाला के विद्यार्थियों को अन्यान्य वस्तुओं के साथ मसीपात्र, लेखनी तथा पट्टी (स्लेट) आदि पठनोपकरण भी प्रदान किये 13
___ अनुयोग-द्वार सूत्र में आवश्यक पर चार निक्षेपों के प्रसंग में 'आगमतः द्रयावश्यक' का वर्णन करते हुए अन्यान्य विशेषणों के साथ उसके अहीनाक्षण, अनत्यक्षर तथा अव्याधिद्धाक्षर,
५. लोहार का एक उपकरण।
-पाइअसहमहण्णवो, पृ० ९६ १. तएणं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ २ ता रहं परावत्तइ २ ता जेणेव उसहकूडे तेणेव
उवागच्छइ २ ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ २ ता तुरए णिगिण्हइ २ ता रहं वेइ २ ता छतलं दुगलसंसियं अट्ठकण्णिय अहिगरणिसं ठियं सोवण्णियं कागणिरयणं परामुसइ २ ता उसहकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि जामगं आउडेइ। अस्सपिणी इमीसे, तइआइ समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चक्कवट्टी, भरहोइअ नामविज्जेण । अहमंसि पढम राया, अहमं भरहाहिवो परवरिंदो। णत्यि महं पडिसत्त , जियं भए भारहं वासं। इति कटटू णामगं आउडेइ २ ता रहं परावत्तेइ .....।
-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चक्रवर्ती-अधिकार, पृ० २१७-१८ २. कल्पसूत्र टोका ५, पृ० १२०
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