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भाषा और साहित्य] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२९३
जैन वाङमय में व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतो ) सूत्र में ब्राह्मी-लिपि का नाम आया है। समवायांग सूत्र तथा प्रज्ञापना सूत्र में १८ लिपियों का नामोल्लेख हुआ है। लिपियों के नाम-सम्बन्धी दूसरे उद्धरण भी पाद-टिप्पण में उल्लिखित किये गये हैं। जैन वाङमय में और भी अनेक स्थलों पर ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे लेखन तथा उससे सम्बद्ध उपकरणों पर प्रकाश पड़ता है । राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव का प्रसंग है । वहां पुस्तक-रत्न का वर्णन है । पुस्तक-रत्न शब्द के प्रयोग का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि पुस्तक को तब रत्न की तरह प्रशस्त माना जाता रहा हो । उस प्रसंग में उल्लेख है : "तब सूर्याभदेव के सामानिक परिषद् का (सामानिक परिषद् से उपपन्न ) देवता सूर्याभदेव को पुस्तक-रत्न देता है। सूर्याभदेव पुस्तक-रत्न को ग्रहण करता है, पुस्तक-रत्न को खोलता है, पुस्तक-रत्न को विधाटित करता है-पत्र उलटता है, पुस्तक-रत्न का वाचन करता है, ( उससे ) धार्मिक व्यवसाय ग्रहण करता है, पुस्तक-रत्न को वापिस प्रतिनिक्षिप्त करता है।"
समवायांग सूत्र में ब्राह्मी लिपि के छयालीस मातृकाक्षर-मूल अक्षर बतलाये गये हैं। वृहत्कल्पभाध्य में पुस्तकों के पांच भेद किये गये हैं : गंडी, कच्छवि, मुट्ठि, संपुटफलक तथा छेदपाटी । आचार्य हरिभद्र रचित दशवकालिक सूत्र की टीका में भी प्राचीन आचार्यों की एतद्विषयक मान्यता के सन्दर्भ में पांच प्रकार की पुस्तकों की चर्चा है। निशीथ-चूर्णि में भी इनका उल्लेख है। समवायांग सूत्र की टीका में ताम्र, लोह, काष्ठ, पल्कल, दन्त, पत्र, रजत आदि पर अक्षर लिखने, उत्कीर्ण करने आदि का वर्णन है । वासुदेव हिण्डी में ताम्नपत्र पर पुस्तक लिखने-उत्कीर्ण करने आदि की चर्चा है।
१. देखें, इसी अध्याय में 'जैन मान्यता' शीर्षक के अन्तर्गत पाद-टिप्पण। २. तएणं तस्स सूरियामस्स देवस्स सामाणिय परिसोववन्नगो देवो पोत्थरयणं उवणेंति, ततेणं
सूरियामे देवे पोत्यरयणं गिण्हइ, पोत्थयणं मुयई, पोत्थरयणं विहाडेइ, पोत्थरयणं वाएति, धम्मिवं ववसायं गिण्हइ पोत्थरयणं पडिणिक्खमति ।
-राजप्रश्नीय सूत्र, पृ० १६७ ३. बंभीएणं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा ।
-समवायांग सूत्र, ४६
४. वृहत्कल्पभाज्य, ३.३८२२ ५. समवायांग सूत्र टीका, पृ० ७८
६. पृ०, १८९
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