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भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-शाला का उद्भव और विकास [२६ का सूचक हो । यदि ब्राह्मी लिपि बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रचलित रही हो, तो फिर ऐसा क्यों है कि अशोक से पूर्व का कोई भी शिलालेख, गुहालेख, स्तम्भ लेख आदि नहीं मिलता, जो ब्राह्मी या और किसी लिपि का सूचक हो । इनके अतिरिक्त और भी कोई ऐसी वस्तु नहीं मिली, जिस पर कुछ लिखा हो ।
धार्मिक ग्रन्थों के लिए तो कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी, इसलिए वे लिपि-बद्ध नहीं किये गये; क्योंकि वैसा करना आवश्यक नहीं समझा गया । ऐसी भी मान्यता रही हो कि शास्त्र-ज्ञान लेखन द्वारा सर्व-सुलभ हो जाने से कहीं अनाधिकारी के पास न चला जाये, इसलिए सम्भवतः शास्त्र-लेखन वर्जित रहा हो। पर, धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी ऐसी अनेक स्थितियां सम्भाव्य थीं, जहां लिपिप्रयोग हो सकता था। ताम्रपत्र, सुवर्णपत्र, रजतपत्र, सिक्के, मुद्राए आदि कुछ भी तो नहीं मिलते । पुनः-पुनः यह प्रश्न उठता है, ऐसा कैसे हुआ ?
एक कल्पना
भारतवर्ष में एक प्रवृत्ति रही है, बहुत बड़े विद्वान्, लेखक या साहित्यकार अपनी रचना में अपना नाम नहीं देते रहे हैं, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से साहित्यिक क्षेत्र में एक दुःखद परिणाम देखा जा सकता है। उनके ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं, जो कर्ता और काल आदि की दृष्टि से सन्दिग्ध हैं । केवल कल्पना द्वारा अथवा इधर-उधर से बटोरे हुए अस्त-व्यस्त आधारों द्वारा रचयिता और रचना-काल का कुछ अनुमान बांधा जाता है। ऐसा करने के पीछे विद्वानों का अभिप्राय अपनी चर्चा से दूर रहना था, क्योंकि वे आत्म-प्रचार, भात्मइलाधा या लोकेषणा से सदा बचे रहना चाहते थे। केवल इतनी-सी उनकी भावना रहा करती, वे एक उत्कृष्ट तथा उपादेय कृति का सर्जन करा सके।
इस सन्दर्भ में क्या यह कल्पना करना अतिरंजित होगा कि हो सकता है, विद्वानों के अनुसरण पर प्राचीन काल के सम्राटों, शासकों और विशिष्ट जनों की भी सम्भवतः यह प्रवृत्ति रहो हो, वे उत्तमोत्तम कार्य तो करें, पर, ऐसा कोई मूर्त या स्थूल प्रतीक खड़ा न करें, जो उनकी प्रशस्ति और कीर्ति को उज्जीवित बनाये रख सके । ___एक अन्य पहलू भी विचारणीय है, शिलालेख आदि केवल प्रशस्तिमूलक ही हों, ऐसा नहीं है । वे घटनामूलक, सत्प्रचारमूलक भो तो हो सकते थे। पेसा होने में क्या बाधा थी? प्रश्न यथार्थ की कोटि से बाहर का नहीं है, पर, वास्तविक समाधान पकड़ में नहीं आता ।
डा० चटर्जी आदि विद्वानों के अनुसार लगभग एक हजार वर्ष ई० पू० ब्राह्मी अपने विकसित रूप में थी। डा. ओझा भी प्राचीन काल से ही इसकी परिपक्वता और व्यवहायोपयोगिता की पुष्टि करते हैं।
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