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२७२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड २ क्रमश: वत्स और संवत्सर का ही प्रयोग हुमा है । कहीं-कहीं अपवाद भी दृष्टिगोचर होते हैं, पर, बहुत कम । सप्तमी विभक्ति का स्मिन् प्रत्यय स्मि रहता है । निय प्राकृत में स्म प्रायः म्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है; अतः सप्तमी विभक्ति एकवचन का स्मिन् प्रत्यय यही मिम मिलता है। प्राकृत धम्मपद स्म, स्व और स तीनों को विद्यमानता देखी जाती है। इससे पश्चिमोत्तर की भाषा की एक विशेष प्रवृत्ति झलकती है-वहां सप्तमी विभक्ति के लिए प्रयुज्यमान रूप में बहुत बैकल्पिकता थी ।
सम्बन्धक भूत कृदन्त अर्थात् हिन्दी व्याकरण के अनुसार पूर्वकालिक क्रिया का प्रत्यय स्वी वैदिक संस्कृत में बहुलतया प्रयुक्त रहा है। लौकिक संस्कृत में पैसा नहीं रहा । निय प्राकृत में यह त्वी प्रत्यय ति के रूप में प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ, वहां श्रुत्वा के लिए भ्रनिति और अपृष्ट्वा के लिए अपुछिति का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकाय धम्मपद में उपजित्वा के लिए उपजिति और परिवर्जयित्वा के लिए परिधति आया है।
हेत्वर्थ में अशोक के शिलालेखों में और निय प्राकृत में 'नये' प्रत्यय का प्रयोग मिलता है। अन्यत्र हैत्वर्थ में तवे का प्रयोग दृष्टिगत होता है। निय प्राकृत में तुमन् प्रत्ययान्त रूप भी मिलते है, पय, बहुत कम । अशोक के पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में प्रथमा एकवचन में अ और ए दोनों प्रत्यय प्राप्त होते हैं । शाहबानगढ़ी के अभिलेखों में औ का और मानसेरा के अभिलेखों में ए का अधिक प्रयोग हुआ है। निय प्राकृत में भी ए का प्रचलन अधिक प्राप्त होता है। उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में औ और ए दोनों का प्रयोग रहा है। सिन्धु नदी के पश्चिम में जो अभिलेख प्राप्त हुये हैं, वहां ए अधिक है तथा अन्य स्थानों पर औ। प्राकृत धम्मपद में ए का प्रयोग प्रायः अनुपलब्ध है । औ मिलता है और उ भी मिलता है। उ का मिलना आश्चर्यजनक है; क्योंकि उ उत्तरवर्ती काल की प्रवृत्ति है, विशेषत: अपभ्रश-काल की। उ का समावेश अर्वाचीनता के प्रभाव का द्योतक कहा जा सकता है। पंचमी विभक्ति एकवचन में प्रयुक्त तसिल् प्रत्यय, जिसके इकार और लकार की इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है और तस्=तः के रूप में बचा रहता है, के लिए भी निय प्राकृत में ए का प्रयोग प्राप्त होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि इस ए प्रत्यय का प्रयोग मागधी प्राकृत की अपनी एक विशेषता है।
निय प्राकृत में नामों (संकाओं) के सब रूप प्रायः अकारान्त नामों के अनुसार होते हैं । नामों के अन्त में अ लगा कर ऐसो स्थिति निष्पन्न की गई है, जो उत्तरवर्ती अपभ्रश की ओर ध्यान आकर्षित करती है। प्रथमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति में कोई प्रत्यय-भेद महीं है । अपभ्रश में भी ऐसी ही स्थिति है।
तुलनात्मक विवेचन से यह प्रकट होता है कि संक्रान्ति-कालीन प्राकृतों में, चाहे संकड़ी ही सही, सादृश्य की धारा प्रवहमान है।
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