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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ व्यवहार-निर्वाह और भाव-स्थायित्व
तात्कालीन मानव भाषा का आविष्कार कर चुका था। सुनकर भोर बोलकर दूसरों के विचार जानने और ज्ञापित करने की क्षमता उस युग के मनुष्य को प्राप्त थी। उसका कार्य चलता रहा। भाषा के अभाव में उसे व्यवहार में जो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, वह मिट गया था। पर, ज्यों-ज्यों विभिन्न लोगों के साथ उसके व्यवहार का बेत्र विस्तृत होता गया, उसे कठिनाइयां अनुभव होने लगी। जिन किन्हीं के साथ उसका व्यवहार था, वे सब उसके सामने उपस्थित होते या होते रहते, तो उसे पारस्परिक व्यवहार को निभाने में कठिनाई नहीं होती; क्योंकि स्वयं बोलकर अपने भाव शापित कर देता और उनके छाया बोलकर व्यक्त किये गये भाव ज्ञात कर लेता। पर, यह सम्भव नहीं था। इसलिए तत्कालीन मानष ऐसा कोई माध्यम खोजने के लिए बेचैन हो उठा हो, जिससे उसकी यह कठिनाई दूर हो सके।
अन्य कारण भी सम्भाव्य है । ज्यों-ज्यों मानव को बौद्धिक चेतमा उबुद्ध होती गयी, वह चिन्तन तथा विचार के क्षेत्र में कुछ आगे बढ़ा। वैचारिक दृष्टि से विकसित होते मानव के मन में स्वभावत: यह भाव उठता है, वह अपने विचारों को स्थायित्व दे सके। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसे ऐसा करने में तुष्टि प्राप्त होती है। साथ ही उसके विचारों से दूसरे लोग तभी लाभान्वित होते रह सकते हैं, जब दैहिक दृष्टि से उसकी विचमानता न रहे; अतः प्रबुद्धचेता मानव को भी यह खोज थी कि उसे कोई ऐसा साधन या सहारा प्राप्त हो, जिससे उसका यह अभाव मिट जाये ।
एक आधार
मानव अपनो मनोभावनाओं, एषणाओं और कामनाओं की परितुष्टि के लिए कुछ प्रतीकात्मक तथा चाहें बहुत अस्पष्ट ही क्यों न हो, चित्रात्मक आड़ो-टेढ़ी रेखाए खींचने में प्रवृत्त हो चुका था। अपने भावों को मूर्त रूप देने के अभिलाषक मानव का उस प्रयत्न की ओर झुकाव हुआ। उसे शान्ति मिली कि उसका वह उपक्रम उसके लिए आधार बन सकता है। वह उस ओर प्रवृत हुआ। अपनी भावनाओं को चित्रों या प्रतीकों के माध्यम से, चाहे वे अपूर्ण, अस्त-व्यस्त व असुन्दर जैसे रहे हों, प्रकट करने का उसमें उत्साह जगा। चित्रलिपि के उद्भव की यह कहानी है। चित्रों या प्रतीकों को उद्दिष्ट कर जिस प्रकार खींची जाने वाली टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं ने लिपि-कला के आदि-स्रोत का काम किया, चित्र-कला का भी उन्हें ही मूल आधार माना जा सकता है।
अन्वेष्टाओं और विद्वानों ने अब तक लिपि के सम्बन्ध में जो अध्ययन तथा गवेषणा को है, उसके अनुसार ईसा से लगभग चार सहमान्दियों पूर्व तक लिपि जैसा कोई व्यवस्थित
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