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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ इस संक्रान्ति-काल में वे प्राकृत आती हैं, जो भारत से बाहर प्राप्त हुई हैं। बाहर से प्राप्त प्राकृत - सामग्री तीन रूपों में है-अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत और निय प्राकृत।
अश्वघोष के नाटक : प्राकृतों का प्रयोग
अश्वघोष बौद्ध भिक्षु, दार्शनिक और कवि थे। उनका रचना-काल ईसा की प्रथम शती माना जाता है। उनके द्वारा रचित दो संस्कृत नाटकों की खण्डित प्रतियां मध्य एशिया में प्राप्त हुई हैं। सुप्रसिद्ध जर्मन धिद्वान् प्रो. ल्यूडस ( Luders ) ने उनका विद्वतापूर्ण सम्पादन किया है। उन नाटकों में कुछ पात्र प्राकृत बोलते हैं। उत्तरवर्ती नाटकों में प्राकृतों का जैसा प्रयोग, जो कृत्रिम अधिक है, स्वाभाधिक कम, हुआ है । अश्वघोष के नाटकों में पैसा नहीं है। वहां प्रयुक्त प्राकृत प्राचीन रूप लिये हुए हैं, जो स्वाभाविक है। तीन प्राचीन प्राकृते
प्रो० ल्यूडस मे अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का विश्लेषण करते हुए जो बताया है, उसके अनुसार यहां तीन प्रकार की प्राकृत प्रयुक्त हुई हैं : प्राचीन मागधी, प्राचीन शौरसेनी तथा प्राचीन अद्धमागधी। प्रो० ल्यूडर्स के अनुसार दुष्ट संज्ञक पात्र की भाषा प्राचीन मागधी, विदूषक तथा गणिका की भाषा प्राचीन शौरसेनी एवं गोमस-तापस की भाषा प्राचीन भद्धमागधी है। पहो प्रयुक्त भाषा अशोक के शिलालेखों से भी कुछ मेल जाती है।
प्राचीन मागधी
दुष्ट संशक पात्र द्वारा प्रयुक्त भाषा के अनुशीलन से जो तथ्य उद्घाटित होते हैं, वे प्राचीन मागधी के स्वरूप के ज्ञापक हैं। वहां र के स्थान पर ल का प्रयोग हुआ है। तालव्य शकास के लिए तो श है ही, मूर्धन्य षकार और दन्त्य सकार के लिए तालव्य शकार का प्रयोग हुआ है। प्रथमा एकवचन में ए विभक्ति का प्रयोग है। अहम् के लिए अहकं आया है, जो आगे चलकर हगे बन गया है तथा षष्ठी विभक्ति एकवचन में 'हो' प्रत्यय ध्यपहृत हुआ है। ये प्रयोग प्राचीन मागधी के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं, जो प्राक्तन मभिलेखों में प्रयुक्त मागधी से तुलनीय है। प्राचीन शौरसेनी
विदूषक तथा गणिका द्वारा प्रयुक्त प्राचीन शौरसेनी की विशेषताए' इस प्रकार है :प्रथमा विभक्ति एकवचन में अः (सु) के लिए ओ प्राप्त होता है। और न्य के लिए वहां अका प्रयोग हुमा है। ऋके लिये इमाया है। व्य के लिए स्व तथा क्ष के लिए ख
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