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भाषा और साहित्य ] संक्रान्ति-काल की प्राकृत
[ २६७ व्यवहृत हुआ है । भवान् के लिए भवां, खलु के लिए खु , कृत्वा के लिए करिय, त्वम् के लिए तुवब जैसे कुछ विशेष प्रयोग भी प्राप्त होते हैं । त्वम् के लिये जो तुवब होता है, वह प्राचीन फारसी के तुवम् से, जो त्वम् के अर्थ में है, नुलनीय है।
कर्तृवाच्य में आत्मनेपदी धातु के साथ संयोजित होने वाले, वर्तमान कालवाची शानच प्रत्यय से निष्पन्न रूप इस प्राचीन शौरसेनी में अपने प्राकृत-परिवेश में सुस्थिय हैं । मुलमानो, पाठ्यमानो आदि इसके उदाहरण है। __ प्राकृत में आत्मनेपदी तथा परस्मैपदी के रूप में धातुओं का विभेद प्रचलित नहीं है; अतः इस भाषा में प्राप्त होने वाले शानच् प्रत्ययान्त रूपों पर इस दृष्टि से चिन्तन की आवश्यकता नहीं है। शामच् प्रत्यय का प्रयोक्तम्य रूप आन है, जो शकार और कार को इत्संज्ञा होने से बचा रहता है। प्राचीन अद्धमागधी
गोमस-तापस द्वारा प्रयुक्त प्राचीन अर्द्धमागधी की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं : मुख्यतः प्रथमा एकवचन की विभक्ति अ. (सु) के लिए ओ प्राप्त होता है। जैन भागमों में तथा उत्तरवर्ती अद्धमागधी में प्रथमा एकवचन के लिए ओ तथा ए दोनों प्रास होते हैं । तालम्य शकार का प्रयोग वहां प्राप्त नहीं होता। वहां क, आक तथा इक प्रत्यय बहुलतया प्रयुक्त हैं । र के लिए वहां ल का प्रयोग हुआ है।
अस्पष्टता या अल्प-स्पष्टता
अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राचीन मागधी, प्राचीन शौरसेनी तथा प्राचीन भदमागधी की जो कतिपय विशेषताएं उल्लिखित की गई हैं, उनसे प्राचीन मागधी और प्राचीन शौरसेनी का स्वरूप जितना स्पष्ट लगता है, पैसा अद्धमागधी का नहीं। अद्धमागधी के
सन्दर्भ में किये गए विवेचन से उसका स्वरूप कोई विशेष स्पष्ट तो नहीं प्रतीत होता, फिर . भी अद्धमागधी की प्रवृत्ति के कुछ संकेत वहां माने जा सकते हैं। संक्षेप में कहें तो केवल इतना-सा यहाँ गम्य है-र का ल होना मागधी से भद्धमागधी में आई हुई विशेषता है, जो अन्यत्र उपसम्ध नहीं है । शकार के प्रयोग का अभाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता; क्योंकि मागधी के अतिरिक्त प्रायः सभी प्राकृतों में केवल दन्त्य सकार का ही प्रयोग होता है।
१. तस्य लोपः॥ तस्येतो लाप: स्यात् ।
-पाणिनीय अष्टाध्यायी, १॥३॥
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