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आगम और त्रिपिटक अनुशीलन
[ खण्ड : २
वेदिक संस्कृत का पहला रूप ऋग्वेद व तत्समकक्ष पुरातन वाङमय में प्राप्त होता है। वहां रूप- बहुलता, विकल्प प्रचुरता जैसी प्रायः सभी बातें मिलती हैं ।
ब्राह्मण-ग्रन्थों में इस भाषा का दूसरा रूप प्राप्त होता है। ॠग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है । ब्राह्मण-ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि दुरूह अर्थं वाले शब्दों के प्रयोग से बचने का वहां प्रयत्न है । धातुओं के गणात्मक विभाजन में जहां भाषा के प्रथम रूप में व्यवस्था नहीं दीखती, यहां गण - विभाजन व्यवस्थित प्रतीत होता है ।
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भाषा के प्रथम रूप व द्वितीय रूप के बीच मुख्यतः जिन पहलुओं में परिवर्तन हुआ, उनमें कुछ इस प्रकार हैं : प्रथम स्तर की भाषा में अकारान्त पुलिंग प्रथमा बहुवचन में देवाः और देवासः जैसे दो रूप व्यवहृत थे, ब्राह्मणों में केवल देवा: जैसे एक ही प्रकार के रूप रह गये । तृतीया बहुवचन में देवैः और देवेभिः; इन दो प्रकार के रूपों में ब्राह्मणों में केवल वेब: जैसे एक ही प्रकार के रूप व्यवहृत होने लगे । ब्राह्मणों में लेट् लकार का प्रयोग भी प्रायः अप्राप्त है । तुमनर्थक अनेक प्रत्यय, जो भाषा के प्रथम रूप में प्रयुक्त थे । ब्राह्मणों में लुप्त हो गये 1 केवल तुम् ( तुमुन् ) ही बचा रहा। ब्राह्मणों में ळड लकार के रूप तथा अर्थ में पाणिनीय व्याकरण से सर्वथा सादृश्य प्रतीत होता है ।
ब्राह्मणों की भाषा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत के रूप में परिणत होने के क्रम में से गुजर रही थी, यह उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है। पर, साथ ही साथ यह भी ज्ञातथ्य है कि तब तक शब्दों के प्रयोग, विभक्तियों के अर्थ व व्यवहार तथा कतिपय धातुओं के रूप आदि में ब्राह्मण-ग्रन्थ वैदिक भाषा का अनुसरण करते रहे हैं ।
ब्राह्मण-ग्रन्थ
भारतीय आर्य भाषा का तीसरा रूप यास्क के निरुक्त में प्राप्त होता है । वेद के अन्तर्गत गिने गये हैं । निरुक्त के लिए ऐसा नहीं है । उसकी रचना वैदिकी प्रक्रिया के नियमों के आधार पर नहीं हुई है । वह संस्कृत में रचित है | पर लौकिक संस्कृत का जो भी साहित्य उपलब्ध है, भाषा की दृष्टि से उसमें निरुक्त बहुत प्राचीन है। निरुक्त का सूक्ष्म दृष्टि से परिशीलन करने पर यह अवगत होता है कि उसमें अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है; जो उत्तरकालीन साहित्य में अप्राप्त है । डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री ने इस प्रकार के कतिपय शब्दों का उल्लेख किया है, जो निम्नांकित हैं :
उपजन मास पास )
उपेक्षितव्य ( परीक्षितव्य या प्राप्तव्य ) कर्मन् (अभिप्राय )
१. भारत की आये- भाषाएं, पृ० ७३-७४
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