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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
भाषाओं के रूप में प्रचलन था और उच्च कहे जाने वाले व्यक्तियों में संस्कृत का प्रयोग चलता था, पर, कादाचित्क और साथ-ही-साथ प्रयत्नपूर्ण ।
लोक प्रयुक्त भाषा जीवित होती है। जीवित भाषा में सर्वत्र एकरूपता नहीं होती । स्थान -भेद, जाति-भेद, व्यवसाय-भेद आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे उसका रूप कुछ-कुछ परिवर्तित हो जाता है और वह भी भिन्न-भिन्न प्रकार से । नाट्य शास्त्र के प्रणेता आचार्य भरत ने नाटक में किन-किन पात्रों द्वारा किन-किन प्राकृतों का उपयोग किया जाना चाहिए, इसका विस्तृत ब्यौरा दिया है। प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण के हेतु उसकी चर्चा यहां अपेक्षित है । भरत ने अग्रांकित रूप में प्रस्तुत विषय में सूचन किया है '
पात्र
भृत्य ( नौकर )
राजपुत्र
सेठ
धू
हाथी, घोड़े, बकरे, ऊंट आदि के घोष स्थान में बसने वाले लोग
-
खस, शकाक्ष्य, घोषक तथा।
इस प्रकार के अन्य व्यक्ति
पुल्कस
तकार, नगर-रक्षक, सुभट
वनचर
राजा के अन्तःपुर में सुरंग खोदने वालों का ध्यान रखने
वाला, अश्व-रक्षक, आपद्ग्रस्त नायक
विदूषक प्रभृति
उदीच्य
अङ्गारकार, आखेटक, काष्ठयन्त्रोपजीवी
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१. नाट्य शास्त्र, १७, ५१-५८
नायिका, सखी
भाषाओं के ये जो अनेक नाम सूचित आदि पर आवृत प्राकृतों के अनेक रूप हैं।
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भाषा
अद्धमागधी
अवन्तिजा
आभीर अथवा शाबरी
खस देश की भाषा
( खासी )
चाण्डाली
दाक्षिणात्या
द्रामडी
मागधी
प्राच्या
चाह्निक
शकार भाषा ( शकारी ) अशतः धनौवासी
शौरसेनी
किये गये हैं, वे स्थान भेद, वर्ग-भेद, व्यवसाय-भेद भाज भी देखा जाता है, एक ही प्रदेश की भाषा
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