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भाषा और साहित्य ]
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए
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उages इति तत्पूर्वकस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । एते चान्यैर्देशीषु पठिता अपि उस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति तथा च वज्जरितौ कथितः, वज्जरिऊण कथयित्वा वज्जरणं कथनम्, वज्जर तो कथयन् वज्जरिअध्वं कथयितव्यमिति रूपसहस्राणि सिद्ध यन्ति । संस्कृत धातुबच्च प्रत्ययलोपागमविधिः ।
दुःखे गिव्वरः ||४|४| दुःखविषयस्य कथेर्णिव्वर इत्यादेशो वा भवति । णिव्वरइ - दुःखं कथयतीत्यर्थ: । दुःखविषयक कथ् धातु को ( विकल्प से) णिम्बर आदेश होता है । जैसे— जिव्रह - दुःख का कथन करता है ।
पिज्ज: डल्ल - पट्ट - घोट्टाः || ४|११ | पिबतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिब को (विकल्प से ) पिज्ज, डल्ल पट्ट तथा घोट्ट; ये चार आदेश होते हैं । जैसे -- पिबति - पिज्जइ, डल्लइ, पट्ट, घोट्टई
निद्रातेरोहोरोधौ ||४|१२| निपूर्वस्य द्रातेः ओहीर उंघ इत्यादेशो वा भवतः । नि पूर्वक द्राति को ( विकल्प से) ओहीर और उंध आदेश होते हैं । जैसे- निद्राति-ओहीरइ, उंघइ ।
वैयाकरणों ने आदेशों द्वारा देशी शब्दों और क्रियाओं को संस्कृत के सांचे में ढालने का जो प्रयत्न किया, वह वस्तुतः कष्ट कल्पना थी, जिसे समीचीन नहीं कहा जा सकता
आचार्य हेमचन्द्र के सोदाहरण पूर्व उद्धत सूत्रों से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं। एक यह है कि अन्य प्राकृत- वैयाकरणों की तरह वे भी आदेशों के रूप में उसी प्रकार की कष्ट कल्पना के प्रचाह में बह गये | दूसरा यह है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रणयन, उद्देश्य, कथन - प्रकार आदि पर पिछले पृष्ठों में जो चर्चा की गयी है, उसी सन्दर्भ को यहां जोड़ा जा सकता है अर्थात् आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के पुल से प्राकृत के तट पर पहुंचाना चाहते थे; इसलिए देशी शब्दों के आधार, व्युत्पत्ति, स्रोत आदि कुछ भी न प्राप्त होने पर भी उन्हें व्याकरण को परिपूर्णता देने की दृष्टि से आवश्यक लगा है कि देशी शब्दों और धातुमों को भी क्यों छोड़ा जाए ? उनके लिए कुछ जोड़-तोड़ की जा सकती है । सम्भवतः इसी का परिणाम आचार्य हेमचन्द्र द्वारा निरूपित आदेश हैं ।
व्याकरण के चतुर्थ पाद के दूसरे सूत्र में आचार्य हेमचन्द्र कथ् धातु के स्थान पर होने वाले आदेशों का उल्लेख कर एक अन्य संकेत करते हैं । यद्यपि दूसरे ( सम्भवतः उनसे पूर्ववर्ती ) वैयाकरणों ने इनको देशी ( रूपों ) में गिना है, पर, वे ( हेमचन्द्र ) घात्वादेशपूर्वक इन्हें विविध प्रत्ययों में प्रतिष्ठित करने की व्यवस्था कर रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र के इस कथन से यह स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती वैयाकरण अनेक देशी शब्दों और धातुओं को देशी ( रूपों ) में पढ़ देते थे । वे सभी देशी रूपों को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करते थे । आचार्य हेमचन्द्र ने तो कथा के अर्थ में प्रयुक्त होने वाले दश देशी क्रिया रूपों को उपस्थित कर दिग्दर्शन
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