________________
२५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : २ केवल तालव्य शकार का ही प्रयोग प्रचलित था। यह परवर्ती मागधी नहीं है, प्राचीन मागधी में भी ऐसा ही था, जो जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलेख से भी प्रकट है। यह एक छोटा-सा अभिशेख, है पर, भाषा की दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। यह लगभग सम्राट अशोक का समकालीन है। इसमें मागधी के प्रायः सभी लक्षण घटित होते हैं । यहाँ र के लिए ल का प्रयोग हुआ है। क का तालव्यीकरण हुआ है । अकारान्त प्रथमा एक वचन में ए प्रत्यय प्रयुक्त हुमा है। सबसे अधिक विशेषता यह है कि इसमें श और स के लिए श का प्रयोग हुआ है।
मागधी में शकार-प्रधान प्रवृत्ति रही है। अश्वघोष के नाटक इसके उदाहरण हैं । उनमें मागधी का भी प्रयोग हुमा है। प्रो. ल्यूडसं ने अश्वघोष के नाटकों को मागषी को प्राचीन मागधी बताया है। ___ इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक यह है कि सम्राट अशोक के पूर्व के अभिलेखों में शकार का प्रयोग प्रायः नहीं मिलता। तालव्य श के लिए वहां दन्त्य स प्राप्त होता है। मागधी-आधृत राज-भाषा में मागधी का मुख्य लक्षण घटित होना चाहिए था। तदनुसार वहां तालव्य, मूर्धन्य और दन्त्य सकारों के लिए तालव्य शकार हो आना चाहिए था । ऐसा न होने का कोई कारण अवश्य होना चाहिए । सुप्रसिद्ध भाषा-शास्त्री डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने एक कल्पना की है । तदनुसार मागधी का मुख्य लक्षण होने के उपरान्त भी शकार का प्रयोग शिष्टसम्मत नहीं गिना जाता रहा होगा । उसे ग्राम्योचित समझा जाता रहा होगा । अन्याय प्राकृतों में सर्वत्र बहु-प्रचलित दन्त्य सकार को अधिक शिष्ट-सम्मतता रही होगी। इसलिए हो सकता है कि तालव्य शकार अशोक के पूर्व के अभिलेखों में स्थान न पा सका हो । इस सम्बन्ध में यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाता है, तो वर्ण-विशेष की शिष्ट-सम्मतता और ग्राम्यसम्मतता का कोई तत्कालीन मापदण्ड तो सामने नहीं आता, पर, डा० चटर्जी की कल्पना असार्थक भी नहीं लगती। क्योंकि आगे चल कर नाटकों में प्राकृतों के प्रयोग की जो व्यवस्था हुई, उसमें मागधी का प्रयोग उच्च पात्रों के लिए नहीं बताया गया। उपलब्ध नाटकों में अश्वघोष के नाटक सबसे प्राचीन हैं। उनके एक नाटक का खल पात्र, जो दुष्ट नाम से अभिहित है, मागधी का व्यवहार करता है। यद्यपि अश्वघोष के नाटक सम्राट अशोक के अभिलेखों भोर जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलोख से तीन-चार शताब्दी बाद के हैं, फिर भी उनसे तुलनीय हैं। क्योंकि कोई भी साहित्यिक भाषा अपने प्राचीन स्तर से शीघ्र मुक्त नहीं
१. शुतनुक माम देवदशिक्यि
तं कमयिथ बलनशेये देवपिने नाम लुपदले
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org