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२०६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ प्रकार और अधिकांशतः शब्दावली की भी मौलिकता उसमें अक्षुण्ण है, ऐसा कहना सन्देहास्पद नहीं है।
त्रिपिटक वाङमय : संक्षिप्त परिचय
सुत्त-पिटक
सुत्त-पिटक पालि-त्रिपिटक का सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग है। बुद्ध द्वारा धम्म का यथावत् रूप में परिचय कराना सुत्त-पिटक का मुख्य विषय है। महापरिनिव्वाण-सुत्त ( दीघ-निकाय २, ३ ) में भगवान् बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था-"आनन्द ! मैंने जो धर्म और विनय उपदिष्ट किये हैं, ज्ञापित किये हैं, मेरे अनन्तर ( मेरे निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् ) वे ही तुम्हारे शास्ता होंगे ।" सुत्त-पिटक निस्सन्देह भगवान् बुद्ध द्वारा प्रज्ञाप्त धर्म का प्रतिपादन करने वाला अनुपम वाङमय है।
सुत्त का संस्कृत रूपान्तर सूत्र भी होता है और सूक्त भी। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों में पालि सुतों के प्रतिरूप सूत्र कहे गये हैं। सुत्त का अर्थ सूत्र, सूत या धागा होता है। पिटक का अर्थ पिटासी है। पिटक का एक अर्थ परम्परा भी है। आचार्य बुद्धघोष ने अट्ठसालिनी की निदान-कथा में इन दोनों अर्थों की ओर संकेत किया है। मज्झिम-निकाय के चंकी -सुत्त तथा सन्दक-सुत्त में पिटक शब्द-परम्परा या ग्रन्थ-परम्परा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसे ध्यान में रखते हुए सुत्त का पिटक 'अर्थात् सूत्र (धागे ) रूपी बुद्ध-वचनों की परम्परा ऐसा अथं किया जा सकता है। जिस प्रकार सूत के गोले को उधेड़ने पर आगे-से-आगे खुलता जाता है, उसी प्रकार बुद्ध-वचन सुत्त-पिटक में आगे-से-आगे उद्घाटित होते जाते हैं ।
आचार्य असंग ने ( चतुर्थ शती) महायान-सूत्रालंकार में 'सूचनात् सूत्रम्' अर्थात् विषय-वस्तु को सूचित करने के कारण सूत्र संज्ञा होती है; ऐसी व्याख्या दी है। आचार्य बुद्धघोष ने अटुसालिनी में 'अत्थानं सूचनतो-सुत्त' ति अक्खातं' अर्थात् अर्थों के सूचन से यह ( सुत्त ) सूत्र शब्द से आख्यात हुआ है, ऐसा विवेचन किया है।
वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रचुरता से प्रयोग होता रहा है। शब्द कल्पद्रुमकार ने सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है-"जिसमें कम अक्षर हों, जो असन्दिग्ध हो, सारयुक्त हो, जिसका विश्वजनीन उपयोग हो, जो विस्तार रहित हो, निर्दोष हो; सूत्रज्ञ उसे सूत्र
१. मज्झिम-निकाय, २, ५, ५ २. वही, २, ३, ६
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