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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन 1 खण्ड : २ वादों के निराकरण के निमित्त 'कथावत्यु' की रचना की, जिसे अभिधम्म में सम्मिलित कर लिया गया। यह स्पष्ट है कि यह बाद की रचना है। अभिधम्म में इसके सम्मिलित कर लिये जाने से यह अनुमान करने का अवसर प्राप्त होता है कि मभिधम्म की रचना या स्वरूप-गठन सुत्त और विनय के अनन्तर समय-समय पर संयोजित होकर पूर्ण हुआ। पर, स्थविर परम्परा को यह किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। उसके अनुसार कथावत्थु की रूपरेखा भगवान् बुद्ध, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे; अतः भविष्य में होने वाले मिथ्या मतवादों को जानते हुए उनके निराकरण के लिए पहले ही निश्चित कर गये। आचार्य बुद्धघोष ने इस: तथ्य को बलपूर्वक समर्थित करने का प्रयत्न किया है। अट्ठसालिनी की निदान कथा में उन्होंने प्रतिपादित किया है कि मधुपिण्डक-सुत्त आदि भगवान् बुद्ध के शिष्यों द्वारा उपदिष्ट हैं, पर, बुद्ध द्वारा अनुमोदित होने के कारण वे बुद्ध-वचन ही कहलाते हैं । उसी प्रकार कथावत्थु को अभिधम्म पिटक का ही ग्रन्थ माना जा सकता है।
परम्परा के प्रति विशेष आदर या बहुमान के कारण यह अर्थवाद या प्रशस्ति की भाषा है। यदि प्रथम संगीति के अवसर पर अभिधम्म का स्वरूप अस्तित्व में आया हुआ होता, तो सुत्त और विनय के साथ उसकी अवश्य चर्चा रहती। चुल्लवग्ग में जहां प्रथम संगीति में बुद्ध-वचन के संगान का प्रसंग आया है, वहां धम्म (सुत) और विनय के ही संगान का उल्लेख है, अभिधम्म का नहीं। वैशाली में आयोजित द्वितीय संगीति के अवसर पर अभिधम्म के सम्बन्ध में स्थविरवादियों और सर्वास्तिवादियों का विवाद, स्थविरवादियों द्वारा उसे साक्षात् बुद्ध-वचन सिद्ध करने का प्रयास, दूसरे सम्प्रदायवालों द्वारा अभिधम्म की प्रामाणिकता का विरोध, ऐसी जो स्थितियां बनीं, उनसे यह अनुमान होना स्वाभाविक है कि प्रथम संगीति के अनन्तर अभिधम्म का स्वरूप-निर्माण होने लगा होगा। प्रथम संगीति के अवसर तक अभिधम्म का अस्तित्व किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता। उससे पहले मातिकाओं (मातृकाओं) का वर्णन प्राप्त होता हैं। मातृकाए वर्गीकरण, विश्लेषण आदि विविध रूपों में थीं। ऐसा सम्भव लगता है कि अभिधम्म-पिटक का गठन इन मातृकाओं के आधार पर हुआ। तीसगी संगीति के अनन्तर भिक्षु महेन्द्र जब लंका जाते हैं, तो विनय-धम्म (सुत्त) के साथ अभिधम्म भी वहां ले जाते हैं। ऐसा लगता है, तब तक अभिधम्म-पिटक का सम्पूर्णतः स्वरूप-निर्धारण हो चुका था। लंका में आने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन हुआ हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। अभिधम्म का लेखन-कार्य विनय और सुत्त के साथ-साथ ही लंका-नरेश चट्टगामणि अभय के समय में ही सम्पन्न हुआ।
१. विनयपिटक
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