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भोषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय
[ २१९ अभिधम्म का स्थान
स्थविरवादी या थेरवादी सम्प्रदाय में अभिधम्म-पिटक का उतना ही महत्व है, जितना सुत्त-पिटक और बिनय-पिटक का। बर्मा में अभिधम्म-पिटक का बहुत व्यापक अध्ययन हुमा है। लंका में भी अभिधम्म का अत्यधिक आदर रहा है। 'महावंश' के अनुसार लंका के राजा आदरपूर्वक अभिधम्म का श्रवण करते रहे हैं और कतिपय राजा तो ऐसे हुए हैं, जिन्होंने स्वयं अभिधम्म का उपदेश भी किया है। दशवीं शताब्दी में हुए राजा काश्यप प्रथम ने समस्त अभिधम्म पिटक स्वर्ण-पत्रों पर उत्कीर्ण करवाया। इतना ही नहीं, अभिधम्म के प्रमुख ग्रन्थ 'धम्मसंगणि' को तो उसने मूल्यवान रत्नों से खचित करवाया। राजा विजयबाहु प्रथम (१०५९-१११४ ईस्वी ) अभिधम्म-पिटक का बहुत बड़ा विद्वान् था। उसने धम्मसंगणि को सिंहली भाषा में अनूदित किया।
अभिधम्म के प्रति जहां एक ओर इतना आदर रहा, दूसरी ओर स्थविर-सम्प्रदाय से भिन्न अन्य बौद्ध सम्प्रदायों में इसकी प्रमाणिकता स्वीकृत नहीं है। बहुत पहले से स्थविरवादियों में भी ऐसे भिक्षुओं के एक वर्ग की सूचना प्राप्त होती है, जिसके अनुसार अभिधम्म प्रामाणिक बुद्ध-वचन नहीं था। उस वर्ग का सुत्तपिटक में ही सर्वाधिक विश्वास था । अट्ठसालिनी में दो भिक्षुओं के वार्तालाप का एक प्रसंग बहुत मननीय है। यह वार्तालाप है : "भन्ते ! आप इतनी लम्बी पंक्ति उद्धत कर रहे हैं, मानो सुमेरु को ही फेंक देना चाह रहे हों। भन्ते ! यह किसकी पंक्ति है ?"
"आयुष्मन् ! यह अभिधम्म की पंक्ति है।"
"भन्ते ! आप अभिधम्म की पंक्ति को क्यों उद्धत करते हैं ? क्या यह समुचित नहीं कि आप बुद्ध द्वारा उपदिष्ट किन्हीं और पंक्तियों को उद्धत करते।"
"आयुष्मन् ! अभिधम्म का उपदेश किसका है ?" "निश्चय ही वह बुद्ध-भाषित नहीं है।"
उपर्युक्त विश्लेषण और ऊहापोह के आधार पर ऐसा मानना अनौचित्य की सीमा में नहीं जा सकता कि प्रणयन या स्वरूप निर्धारण के समय की अपेक्षा से अभिधम्म सुत्त और विनय से निश्चय ही परवर्ती है। अभिधम्म के ग्रन्थ
पालि अभिधम्म के निम्नांकित ग्रन्थ हैं : १. धम्मसंगणि
२. विभंग
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