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भाषा और साहित्य ] शिलालेखी - प्राकृत
[ २३९ पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में दन्त्य और मूर्धन्य वर्गों की नियतता दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे, चतुर्थ शिलालेख (शाहबाजगढ़ी ) में तिष्ठति के लिये तिस्तिति बोर श्रेष्ठम् के लिए ले प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् एक ही स्थान पर दन्त्य और मूर्धन्य दोनों प्राप्त होते हैं।
उत्तर-पश्चिम के अभिलेखों में कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं, जिनमें र का लोप दृष्टिगोचर होता है। जैसे, षष्ठ शिलालेख में कृतम् के लिए किटं रूप प्राप्त होता है । वास्तव में इन शिलालेखों की प्रयोग-परम्परा के अनुसार कृत का क्रिट होना चाहिए; जैसा कि पूर्वोल्लेख हुभा है, ऋकार का विकास इन शिलालेखों में रि, रु और कहीं-कहीं र के रूप में देखा जाता है। पूर्व के शिलालेखों में इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं है। वहां ऋकार, इकार उकार या अकार में परिवर्तित दृष्टिगोचर होता है। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में क्रिट के स्थान पर किट जैसे प्रयोग ( अर्थात् रकार का लोप ) की प्रवृत्ति पूर्व से आई हुई प्रतीत होती है।
उत्तर-पश्चिम के अभिलेखों में आकार को कार में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है । जैसे, चिकित्सा के लिए चिकिस', यथा के लिए यप तथा
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१. ध्रमे शिले च तिस्तिति प्रमं अनुशशिशंति । एत हि ले क्रमं यं धमनुशशनं प्रम
चरणं पिच। (....."धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति । एतत् हि श्रेष्ठ कर्म पत् धर्मानुशासनम् )
-शाहबाजगढ़ी, चतुर्थ शिलालेख २. तं मय एवं किट सत्र कलं............) (तत् मया एवं कृतं सर्व कालं......)
-शाहबाजगढ़ी, षष्ठ शिलालेख' ३. प्रिपद्रशिस रो दुवि चिकिस किट मनुशचिकिस पशुचिकिस च । ( प्रियदर्शिनः राज्ञः वि चिकित्से कृते मनुष्यचिकित्सा च पशुचिकित्सा च ।)
-शाहबाजगढ़ी, द्वितीय शिलालेख ४. .."इमिम ध्रमनुशस्ति यथ अ ये पि क्रमये । (-अस्ये धर्मानुशिष्टय यथा अन्यस्मै अपि कर्मणे ।)
-शाहबामगढ़ी, तृतीय शिलालेख
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