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२३६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ जैसे. धर्म-लिपि के लिये प्रमदिपि', सर्वत्र के लिए सनत्र तथा प्रियदर्शिनः के लिए प्रिम्दशिस प्रभृति रूप पाये जाते हैं। रकार के स्थान-परिवर्तन की ऐसी प्रवृत्ति अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती।
जिन संयुक्त व्यञ्जनों के अन्त में यकार होता है, उस ( यकाय ) का लोप हो जाता है। यह प्रवृत्ति उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, वहां कल्याण के लिए कलण तथा कर्तव्य के लिए कटव' आया है । यकार-लोप की यह स्थिति अधिकांशतः शाहबाज़गढ़ी के अभिलेखों में प्राप्त होती है। मानसेरा के अभिलेखों में इससे भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। जैसे, बारहवे और पहले शिलालेख में शाहबाजगढ़ी में जहां कल्याण के लिए कलण और कर्तव्य के लिए कटव आया है, मानसेरा में कयण और कटविय' का प्रयोग हुआ है।
उत्तर-पश्चिमी अभिलेखों में जिन व्यंजनों में र मिला रहा होता है, वे व्यंजन प्रायः
१. (अ) यं ध्रमदिपि देवन प्रिअस-रओ लिखपितु। ( इयं धर्मलिपि: देवानां प्रियेण राज्ञा लेखिता।)
-प्रथम शिलालेख २. सवत्र विजिते देवनं प्रियस प्रियदशिस ये च अंत....। ( सर्वत्र विजिते देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः ये च अन्ताः.... ।)
-द्वितीय शिलालेख ३. पुर महनसि देवनं प्रियअस प्रिअद्रशिस रो। (पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिन: राज्ञः ...")
_ -प्रथम शिलालेख ४. एवं हि देवनं प्रियस इछ किति सन्न प्रचंड बहुश्रु त च कलण वतवो... । (एवं हि देवानां प्रियस्य इच्छा किमिति सर्वपाषण्डाः बहुश्रु ताः च कल्याणवन्त:।)
-द्वादश शिलालेख ५. हिद नो किचि जिवे आरमित प्रयुहोतविये। नो पि च समज कटब । (इह न कश्चित् जीवः आलभ्य प्रहोतव्यः । नापि च समाज: कर्तव्यः ।)
--प्रथम शिलालेख ६. एवं हि देवनं प्रियस इछ किति सन्न पषड बहुश्रुत च कयण तविये...। ७. हिद नो कि चि जिवे आरभित प्रयुहोतबिये नोपि च समज कटविय ।
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