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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ केवल पूर्वीय भूभाग तक ही सीमित नहीं रहा। वह पश्चिम में भी फैलने लगा। लोग प्राकृतों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का होत्र बढ़ने लगा। बोलचाल में तो वहां (पश्चिम) भी प्राकृतें पहले से थी ही, उस समय वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्याय लोकजनोन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगी। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा। फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवद्ध नशील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हुई। तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था। उस समय उसमें अनेक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, अर्थनीति, राजनीति, सदाचार, समाजव्यवस्था, लोक-रंजन; प्रभृति जीवन के विविध अंगों का संस्पर्श करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी। प्राकृत में यह सब चल रहा था। लोक-जीवन में रची-पची होने के कारण लोक-चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी; अतः उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सृजन हुआ, उसमें चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का । उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा सकता है। महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संवद्धित होता रहा है। उसमें श्रमण-संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चचित हुए हैं, वे सब इसी स्थिति के परिणाम हैं। भाषा-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। .
एतन्मूलक (संस्कृत) साहित्य प्राकृत-भाषी जन-समुदाय में भी प्रवेश पाने लगा। इस क्रम के बीच प्रयुज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ । यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवर्तन का अवकाश नहीं है, पर, फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने योग्य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है, तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसा समाविष्ट होने लगता है, जो उन अन्य भाषा-भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकूलता लाने वाली होती है। उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है। उसका शब्द-कोश भी समृद्धि पाने लगता है। शब्दों के अर्थों में भी यत्र-तत्र परिवर्तन हो जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है, वे नये-नये अर्थ ग्रहण करने लगते हैं। विकल्प बोर अपवाद कम हो जाते हैं। साथ-ही-साथ यह घटित होता है, जब अन्य भाषा-भाषी किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं, तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
सब कुछ होते हुए भी भगवान् महावोर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोत्तर गतिशील
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