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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
| खण्ड :२
यह फल निकला। दीपवंस में इस महासंगीति की बड़े कड़े शब्दों में आलोचना की गयी है । "महासंगीति आयोजित करने वाले भिक्षुओं ने भगवान् बुद्ध के शासन को
दूसरा ही संघ खड़ा कर
वहां लिखा है विपरीत बना डाला । उन्होंने मूल संघ में भेद पैदा करके एक दिया । उन्होंने धर्म के यथार्थ आशय को भेद डाला । उन्होंने दूसरे हो सुत्तों का संग्रह किया, दूसरे ही अर्थ किये। पांच निकार्यों के यथार्थ आशय और धर्म प्ररूपण को उन्होंने भेद डाला 11
सब कुछ हुआ तो सही, पर, स्थायी नहीं बन पाया । पालि त्रिपिटक के समक्ष उसकी कोई प्रामाणिकता स्थापित नहीं हो सकी । फलतः आगे चल कर उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं यह पाया ।
वैशाली की संगीति में विवादास्पद विषयों पर निर्णय हो जाने के पश्चात् प्रथम संगीति की तरह भिक्षुओं ने महास्थविर रेवत के नेतृत्व में धम्म का संगान और संकलन किया । आचार्य बुद्धघोष ने जिस प्रकार प्रथम संगीति के समय बुद्ध वचन के संगान, तीन पिटकों में विभाजन आदि का उल्लेख किया है, उसी प्रकार द्वितीय संगीति के समय बुद्ध वचन के अनुसंगान का उल्लेख किया है । संगान और अनुसंगान शब्दों के प्रयोग से आचार्य बुद्धघोष ने त्रिपिटक की एकात्मकता की ओर इङ्गित किया है ।
तीसरी संगीति
बौद्ध धर्म उतरोत्तर अधिकाधिक विकास पाता गया । अशोक द्वारा दिये गये राज्याश्रय के कारण उसकी आशातीत वृद्धि हुई । पर, साथ-ही-साथ एक बुराई यह भी आई कि अशोक जैसे धर्मानुरागी सम्राट् से बौद्ध धर्म संघ और भिक्षुओं को प्राप्य दान, सुविधा, सत्कार आदि के कारण अनेक स्वार्थी लोग जो विचारों से बौद्ध नहीं थे, उसमें प्रविष्ट होते गये । इस प्रकार धर्म का स्वरूप विकृत होने लगा । अशोक के समय तक बौद्ध धर्म भिन्न-भिन्न अठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था । तब यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि संगीति आयोजित की जाए, धम्म और विनय का पुनः संगान हो, जिससे जो अनधिकारी धम्म संघ में घुस आये हैं, उनका संघ से निष्कासन किया जा सके । फलतः सम्राट् अशोक के शासन काल में भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद पाटलिपुत्रस्थ अशोकाराम में १. महासंगीतिका भिक्खू विलोमं अकंसु सासनं । भिन्दित्वा मूलसंघ अञ्ञं अकंसु संघं ॥ अज्ञत्थ संगहितं सुरां अत्थ अकरिंसु ते । अत्यं धम्मं च भिन्दिसु ये निकायेसु पंचसु ॥ - दीपवंस, ५, ३२-३८
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