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भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [ १९७ निर्णय करने की स्थिति ही कैसे आती कि वैशालो के भिक्षुओं का आचार दूषणीय है। आठ महीनों के शास्त्र-मन्थन तथा ऊहापोह के पश्चात् एक निर्णय होता है, . तो यह मानना होगा कि उसके पीछे बहुत सुदृढ़ आधार अवश्य रहा होगा। वह आधार विनय-सम्बन्धी बुद्ध-वचनों के अतिरिक्त और क्या हो सकता था? यह संशयास्पद नहीं लगता कि वैशाली को संगीति से पहले विनय का प्रायः वही रूप रहा हो, जो आज विनय-पिटक में है । गौणरूपेण परिष्करण, परिमार्जन, परिवर्तन आदि को छोड़ दिया जाये, जिस पर आगे विचार किया जायेगा, वंशालो की संगोति से पूर्व के और वर्तमान के विनयपिटक में कोई मौलिक अन्तर नहीं माना जा सकता। पर, इसके साथ यह विचारणीय है कि यदि वैशाली को संगोति से पूर्ववर्ती विनयपिटक में उक्त दश आचारों का वर्जन था या उनका समर्थन नहीं था, तो फिर पूर्वी प्रदेश के भिक्षुओं को उनका समर्थन करने के लिए कौन-सा आधार प्राप्त था ?
शताब्दियों तक पिटक अलिखित रहे। मौखिक रूप में उनका पठन-पाठन चलता रहा । मौलिकता के साथ एक आशंका भी बनी रहती है। यथार्थ धर्म-निष्ठा से विचलित होकर यदि कोई अपने किसी अविहित आचरण को समर्थित करना चाहे, तो शब्दावली को उलट-पुलट करने, उसमें परिवर्तन, परिवद्धन का अवकाश वह निकाल लेता है। वैशाली के भिक्षुओं और उनके समर्थक भिक्षुओं के साथ भी कोई ऐसी ही स्थिति रही हो । घेशाली पूर्व भारत का राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र था। जब पश्चिम प्रदेश के भिक्षुओं ने वैशाली के भिक्षुओं का विरोध किया, तो मानवीय दुर्बलतावश पूर्व प्रदेश के मित्रों में प्रादेशिकता का भाव उभर आया हो । यद्यपि ये बहुत छोटी बातें हैं । भिक्षु के पवित्र जीवन के साथ इनका मेल नही हो सकता, पर, भिक्षु भी साधारण जन-समाज से ही गये थे, उनमें भी यह सब सम्भावित था। स्वर्ण-रजत रखने, ताड़ी पीने, खान-पान में लोलुप बनने को छूट भगवान् बुद्ध के शासन में कैसे सम्भव हो सकती थी? ऐसा अनुमान करना सत्य से परे नहीं लगता कि वैशाली के भिक्षुओं में निःसन्देह कुछ दुर्बलताए पनपी हों और उन्होंने इन सदोष कार्यों को भी निर्दोष प्रमाणित करने का आग्रह रखा हो। नये बुद्ध-वचनों की सृष्टि
वैशाली के भिक्षु और उनके समर्थक पूर्व के भिक्षु वैशाली की परिषद् में पराजित हुए । उनके मन्तव्य बुद्ध-वचनों के प्रतिकूल घोषित किये गये। इसके दो परिणाम सामने आये । पहला था-विनय का जो स्वरूप था, वह स्पष्ट हुआ, अविकृत रूप में वह पुनर्गठित हुआ। दूसरा परिणाम निकला-जो भिक्षु पराजित हुए, वे संगीति के निर्णय के सामने नहीं भुके। उन्होंने उसका बहिष्कार किया और एक नयी महा-संगीति आयोजित की। उसमें नये बुद्धवचनों की सृष्टि की, जिन्हें उन्होंने वास्तविक कहा । अपमानित भिक्षुओं की उत्तेजना का
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