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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ न के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं र् या ल भी होता है। जैसे, नैरंजना=नेरंजरा, एनएल।
संस्कृत के ण वर्ण के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं ळ होता है। जैसे, वेणु-बेलु। यह नियम शब्द के मध्य स्थित व्यंजन की अपेक्षा से है।
संस्कृत के र् वर्ण के स्थान पर पालि में बहुलतया ल हो जाता है, र् भी बना रहता है। उदाहरणार्थ, संस्कृत के तरुण शब्द का पालि रूपान्तर तलुण भी है और तरुण भी।
शब्द के मध्यवर्ती ल के स्थान पर पालि में कहीं-कहीं र् हो जाता है। जैसे, आलम्बन-आरम्मण ।
शब्द के मध्यवर्ती य के स्थान पर पालि में व् हो जाता है। जैसे, आयुध आवुध ।
शब्द के मध्य स्थित व् के स्थान पर पालि में य हो जाता है। जैसे, दाव-दाय । यह नियम सर्वथा व्यापक नहीं है; अतः कभी दाव का दाव भी रहता है।
संस्कृत के व् वर्ण के स्थान पर पालि में म् भी हो जाता है। जैसे, द्रविड-द्रमिल।
ठीक इसके विपरीत एक नियम यह भी है, संस्कृत के म् के स्थान पर पालि में व हो जाता है। जैसे, मीमांसा-वीमांसा :
पालि में वर्ण-विपर्यय के उदाहरण बहुत मिलते हैं। शब्द के बीच में विद्यमान व्यंजन परस्पर में एक-दूसरे के स्थान लेते हुए भी पाये जाते हैं। किसो खास वर्ण के लिए यह नियम नहीं है, पर, अधिकांशतः इसका सम्बन्ध र व्यंजन से है। जैसे, करेणु-कणेरु । ___ संस्कृत का स् पालि में क्ख या च्छ हो जाता है। जैसे, कक्ष-कच्छ, परीक्षापरिक्खा, अशि-अक्खि या अच्छि ।
संस्कृत के हग , हन्, हम् , हय , हव; इन संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर पालि में क्रमशः ण ह., नह , म्ह , यह , और वह हो जाते हैं । अर्थात् बाद में आने वाले ण न्, म्, य और व् पहले चले जाते हैं। पहले वाले उनके आगे चले जाते हैं। जैसे, अपराहण=अपरण्ह, चिहन से चिन्ह, जिह वा जिव्हा । संस्कृत के शन्, शम्, षण, म्, स्न्, सम्, यथाक्रम अह , म्ह, णह, मह., न्ह, और मह, हो जाते हैं। से, प्रश्न-पञ्ह, अश्म=अम्ह, उष्ण-उण्ह, ग्राम=गिम्ह, स्नान-न्हाण, विस्मय=विम्हय ।
संस्कृत शब्दों के अन्त में जो व्यञ्जन आते हैं, पालि में वे लुप्त हो जाते हैं। प्राकृत में भी ऐसी ही प्रवृत्ति है। उदाहरणार्थ, पालि में भगवान् का भगवा और सम्यक का सम्मा होता है।
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