________________
भाषा और साहित्य ]
पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय
[ १७९
लूडस ने प्राचीन अद्धमागधी के रूप में जिस भाषा का अंकन किया है, वास्तव में उसका अपना स्वतन्त्र रूप प्राप्त नहीं है। लूडर्स ने अशोक के शिलालेखों तथा अश्वघोष के नाटकों के अवशिष्ट अंशों के आधार पर प्राचीन अद्धमागधी की कल्पना की है। पर, ये आधार उचित नहीं कहे जा सकते; क्योंकि ये पश्चाद्वर्ती हैं। अशोक के शिलालेखों के सम्बन्ध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी। फ्रांस के विद्वान् सिलवां लेवी का भी इसी प्रकार का मत है। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पालि त्रिपिटक भगवान बुद्ध के मौलिक वचन नहीं हैं।
वास्तव में पालि के सम्बन्ध में विद्वानों में जो मतानक्य या सन्देहात्मकता रही, उसका मुख्य आधार पालि के रूप की बहुविधि विशेषताए हैं। बुद्ध ने ऐसी भाषा में उपदेश दिया, जो नाम से तो मागधी कहलाती थी, जिसका मुख्य आधार मगध प्रदेश की बोली था, पर, पश्चिम प्रदेश की अन्यान्य बोलियों का मिश्रण भी उसमें था। इस पहलू पर कुछ दूसरी अपेक्षाओं से भी चिन्तन आवश्यक है। साथ-ही-साथ भगवान् बुद्ध के युग, उनका विहरणक्षेत्र, शिष्य-सम्पदा, परिस्थितियां, आदि के सन्दर्भ में भी प्रस्तुत विषय के परिशीलन किये जाने पर कुछ और प्रकाश मिल सके ।
बुद्ध-युग : पारिपाश्विक स्थितियां
भगवान् बुद्ध कुरु जनपद से मगध और विन्ध्य से हिमालय तक अर्थात् इनके मध्यवर्ती अनेक प्रदेशों, जनपदों, क्षेत्रों में विहार करते रहे थे। बौद्ध वाङ्मय में 'मज्झिमेसु' 'पवेसु' के नाम से इस भूभाग का उल्लेख हुआ है। यह भी सर्वविदित है कि भगवान् बुद्ध का धर्म-सघ जातीय उच्चता तथा नीचता के भाव से परे था। उनके धर्म-संघ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, पश्य, शूद्र; सभी जातियों के लोग बिना किसी भेद-भाव के सम्मिलित होते रहे थे। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों के लोग भगवान् बुद्ध के संघ में थे, उसी प्रकार विभिन्न प्रदेशों के लोग भी थे। बुद्ध के उपदेश मौखिक थे। उनके जीवन-काल में नहीं, प्रयुत उनके परिनिर्वाण के दो तीन सदियों के बीच उनके उपदेश संकलित हुए। उनका लेखन तो और विलम्ब से हुआ । अर्थात् ई० पूर्व पहली शताब्दी में वे लंका में लिखे गये । काल की इतनी लम्बी अवधि में उनके रूप में अनेक परिवर्तन तथा परिवर्धन क्या सम्भव नहीं हैं ?
डा० गायगर ने विशेष बलपूर्वक यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि भाषा तथा विषय; दोनों की दृष्टि से पालि-त्रिपिटक भगवान् के मूल पचन हैं । विनयपिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा है। दो ब्राह्मण भिक्ष थे। एक का नाम यमेलु और दूसरे का तेकुल था।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org