________________
१६२ ]
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन इससे बुद्ध-वचनों को मौलिकता और प्रभावशीलता कैसे टिकतो? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्ध ने अपना उपदेश मगध देश की टकसाली भाषा में ही दिया। उनके शिष्यों ने उसी में उसको सीखा और उसी में दूसरों को सिखाया।
संस्कृत जैसी परिमार्जित भाषा में बुद्ध-वचन न रखे जाने का तर्क प्रस्तुत करते हुए भिक्षु सिद्धार्थ साधारण बोलचाल की भाषा में उन्हें रखे जाने को अनुज्ञा कैसे होती, यह जो हेतु दिया है, समीचीन नहीं लगता। संस्कृत व्याकरण-बद्ध एवं रूढ़ भाषा है। उसे बहुत कम लोग समझ सकते थे। उस भाषा में बुद्ध-वचन रखे जाना एक भिन्न बात है और बोलचाल को भाषा में रखा जाना सर्वथा अन्य । दोनों में सादृश्य नहीं है। फिर भगवान् बुद्ध तो बोलचाल की भाषा के पक्षपातो थे ही । मूल बात अपनी-अपनी भाषाओं-अनेक बोलचाल की भाषाओं में बुद्ध-वचन अधिगत किये जाने की है। भिक्षु सिद्धार्थ ने इसी का परिहार किया है। पर, हेतु प्रस्तुत करते समय उन्हें सूक्षमता का ध्यान कम रहा है। उन्होंने निष्कर्ष रूप में जो विचार व्यक्त किये हैं, उनका आशय एक व्यापक अर्थ लिये हुए है। पर, आचार्य बुद्धघोष, डा० गायगर और स्वयं उन्होंने भगवान बुद्ध के उपदेशों की भाषा को मगध की बोलचाल की भाषा के यथावत् रूप से जोड़ने का जो प्रयास किया है, वह उपयुक्त अभिप्राय से मेल खाता हुआ नहीं दीखता। टकसाली मागधी और मगध प्रदेश की बोलचाल की मागधी एक नहीं हो सकतीं। भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों के लिए उस भाषा को अपनाया जो केन्द्रीय राज्य-सत्ता मण्डल या मध्य देश की टकसाली भाषा थी। क्या उन्होंने यह अपेक्षा नहीं को कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भृिक्ष, उसो में उनके बचनों की अनुज्ञात करें। सामान्यतः वह केन्द्र-भाषा, सम्पर्क-भाषा या राष्ट्र-भाषा सभी सम्बद्ध प्रदेशों में समझे जा सकने योग्य थी ही।
विण्टरनित्ज ने सकाय निरुत्तिया के सन्दर्भ में डा० गायगर का खण्डन किया है। उन्होंने "भिक्खवे' के साथ 'वो' पद जोड़ने की अनिवार्यता नहीं मानी। उन्होंने कहा है कि प्रसंग से वह स्वयं समझे जा सकने योग्य है। डा० बी० सी० लॉ और डा० कीथ ने भी डा० गायगर के मत का खण्डन किया है। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने भी डा. गायगर के मत को मान्यता नहीं दी है।
डपसंहार
तथागत को किसो भाषा विशेष के प्रयोग में आग्रह नहीं था, पर, एक स्तर-भाषा को स्वीकार करना तो उनके लिए आवश्यक जैसा था। भिक्षुगण चाहे किसी भी प्रदेश के हों, 1. Budhist Studies, P. 649
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org