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भाषा और साहित्य पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय
[ १६९ भाषा में त्रिपिटक लिखा गया, उसके लिए मागधी, मगध भाषा, मागधा निरुक्ति तथा मागधिक भाषा जैसे शब्दों का उल्लेख हुआ है। इन शब्दों से यह व्यक्त होता है कि वह भाषा मगध देश में बोली जाने वाली थी। लंका की परम्परा भी उसे मगध की भाषा मानती है। उसके अनुसार मागधी ही वह मूल भाषा है, जिसमें सम्यक् सम्बद्ध भगवान् बुद्ध ने उपदेश किया। कच्चान व्याकरण में भी ऐसा ही उल्लेख है। वहां उसे संसार को मूल भाषा' और वह भाषा कहा गया है, जिसमें सम्यक् सम्बुद्ध ने भाषण किया। आचार्य बुद्धघोष ने भी ऐसा ही माना है। समन्त-पासादिका में उन्होंने लिखा है कि सम्यक् सम्बद्ध (भगवान् बुद्ध के द्वारा प्रयुक्त भाषा मागधी ही है। अपने धर्म से सम्बद्ध भाषा के प्रति व्यक्ति का अनुराग सहज ही बढ़ जाता है । दूसरे शब्दों में वह आसंग या आसक्ति की सोमा में चला जाता है। फलतः व्यक्ति वस्तुपरकता के स्थान पर प्रशस्ति की भाषा में बोलने लगता है। बुद्धघोष विद्वान् होने के साथ-साथ बौद्ध धर्म के आचार्य भी थे, इसीलिए बहु-मानवश यहां तक लिख देते हैं कि मागधी सब प्राणियों की मूल भाषा या आदि भाषा है। संसार की आदि भाषा के सन्दर्भ में यह चर्चा की जा चुकी है। लंका की परम्परा
लंका में आज भी यह दृढ़ विश्वास है कि जो भाषा पालि कहलाती है, वह भगवान् बुद्ध के समय में मगध में बोली जाती थी। लंका को परम्परा में भगवान् बुद्ध के त्रिपिटकात्मक वचनों की भाषा को तो मागधी कहा ही गया है, बारहवों-तेरहवीं शती में रचित अट्ठकथाओं तक की भाषा को भी वह मागधी कहने में तुष्टि और गरिमा का अनुभव करती है।
तेरहवीं शती का एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, चूलवग्ग। वह महावंस का परिवद्धित संस्करण है। उसका एक प्रसंग है। रेवत स्थविर ने आचार्य बुद्धघोष से कहा कि लंका जाकर सिंहली अट्ठकथाओं का मागधी में अनुवाद करो। उसी प्रसंग में आगे लिखा गया है कि आचार्य बुद्धघोष ने रेषत स्थविर के आदेश के अनुसार ऐसा ही किया। वहां लिखा गया है कि सभी सिंहली अट्ठकथाओं का मूल भाषा मागधी में परिवर्तन कर दिया गया । इससे कुछ पूर्व १२ वीं शती में मौग्गलान ने पालि-व्याकरण की रचना की। वहां उन्होंने प्रारम्भ में कहा है कि वे मागघी का शब्द-लक्षण या व्याकरण वणित करेंगे। ब्रह्मदेश को परम्परा
पिटक और तदुपजीवी वाङमय की भाषा के सम्बन्ध में सिंहली परम्परा का ही प्रायः १. सा मागधी मूल भासा.... 'सम्बुद्धा चापि भासरे । २. चूलवग्ग परिच्छेद ३७, गाथा २२९-२३०
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