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भाषा और साहित्य ]
पालि-भाषा और पिटक-बाङमय
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में बोले हों। दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि उन्हें मगध की जनता को समझाना था; अत: बहुत सम्भव है कि उन्होंने कौशल और मगध की भाषा के मिश्रित रूप का व्यवहार किया हो।
प्रो० रायस डेविड्स ने इस सन्दर्भ में कहा है कि अशोक के शिलालेखों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह ई० पू० छठी-सातवीं शती में कौशल प्रदेश में बोली जाने वालो भाषा का विकसित रूप है। इसके-परिपावं में प्रो. रायस डेविड्स ने यह भी सम्भावना की है कि अशोक के समय में कौशल प्रदेश को टकसाली भाषा ( Stardard Language ) ही मगध-साम्राज्य की राष्ट्र-भाषा (राज-भाषा) रही हो ।
. डा० विण्टरनित्ज ने प्रो. रायस डेविड्स के इस मत पर शंका करते हुए कहा है कि ई० पू० छठी-सातवीं शती में कोशल-प्रदेश की भाषा का क्या रूप था, इसकी आज जानकारी ही क्या है ? जानकारी के बिना उसे पालि का मूल किस आधार पर माना जा सकता है। प्रो० रायस डेविड्स की कल्पना के असंगत लगने का एक दूसरा कारण यह भी है कि मगध-साम्राज्य अपने युग का सुप्रतिष्ठित साम्राज्य था। वह अपनी राज-भाषा के लिए किसी पड़ोसी प्रदेश की भाषा को स्वीकार करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? अशोक के समय में मगध-साम्राज्य उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचा हुआ था। ऐसी स्थिति में अधिक समोचीन यही प्रतीत होता है कि उस समय मगध में जो भाषा थी, उसे ही राजभाषा का गौरव प्राप्त हुआ हो। इतना अवश्य है कि जब किसी केन्द्रीय राज्य में कई दूसरे प्रदेश सम्मिलित हो जाते हैं, तो जो राज-भाषा बनती है, उसका मुख्य आधार तो एक ही बोली होती है, पर, अन्यान्य प्रदेशों की बोलियों के लिये भी उसमें स्थान रहता है। कोई राज-भाषा या केन्द्रीय भाषा सर्वसम्मत, सर्वग्राह्य तथा सर्वोपयोगी तभी हो सकती है; इसलिए कौशल प्रदेश की बोली को पालि का आधार मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । इसी प्रकार वेस्टर गाडं, कुह न, फंक और स्टेन कोनो के मत एक-एक अपेक्षा को लिये हुए हैं। उनमें सर्वागीणता नहीं है। विन्ध्य प्रदेश की भाषा को पालि का आधार मानना लगभग वैसा ही है, जैसा कौशल की भाषा को पालि का आधार मानना। इन विभिन्न मतों के परिपाश्वं में पालि की कुछ ऐसी विशेषताए या उसके कुछ ऐसे विशेष लक्षण प्रतीत होते हैं, जिनसे विभिन्न प्रदेशों की भाषाओं के साथ उसको सम्बन्ध जोड़ने के आधार मिल जाते हैं। इसका आशय यह हुआ कि किसी एक बोलो को मुख्य आधार के रूप में गृहीत करने पर भी उसे अन्तन्तिीय रूप लेने के लिए आस-पास के प्रदेशों की अनेक बोलियों की विशेषताओं को यथासम्भव स्वीकार कर लेना पड़ा ।
1. History of Indian Liteature, vol. II, P. 605 Jain Education International 2010_05
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