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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ निकली होती, तो देश्य शब्दों का संस्कृत के किन्हीं-न-किन्हीं शब्दों से तो अघश्य सम्बन्धस्रोत जुड़ता। पर, ऐसा नहीं है। यद्यपि संस्कृत-प्रभावित कतिपय घेयाकरणों ने इन देश्य शब्दों में से अनेक नामों तथा धातुओं को संस्कृत के नामों और धातुओं के स्थान पर आदेश द्वारा प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है।
आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-बाकरण में इस प्रकार का उपक्रम द्रष्टव्य है। एतत्सम्बद्ध कुछ सूत्र यहां उद्धत किये जाते हैं :
वृक्षमितयो मछुढौ ॥ २॥१२७ । वृक्षक्षिप्तयोर्यवासंख्य' सक्ख छुढ इत्यादेशौ वा भवतः । वृक्ष और क्षिप्त शब्दों को (विकल्प से) क्रमश: रुक्ख और छूढ़ आदेश होते हैं । यथा वृक्ष:रुपसो, क्षिसम्-छूढं, उत्क्षिसम्-उच्छूढं ।
मारस्य मंजरवंजरी ॥ २॥१३२॥ मार्जारशब्दस्य मंजर वंजर इत्यादेशो वा भवतः। मार्षाप शब्द को ( विकल्प से ) मंजर और बंजर आदेश होते हैं । यथा-मारि:-मंजरो, वंजरो।
प्रस्तस्य हित्य-तट्ठौ ॥२॥ १३६ । प्रस्तशब्दस्य हित्य तह इत्यादेशो वा भवतः । त्रस्त शब्द को ( विकल्प से ) हित्य और तह बादेश होते हैं । यथा-वस्तम्-हित्यं, तटुं।
अघसो हेढ़ ॥ २१४१ । अधस् शम्बस्य हेठ इत्ययमादेशो भवति। अधस पद को हे आदेश होता है । यथा-अधः - हेटठं।
गौणावयः ॥ ११७४ । गोणादयः शब्दा अनुक्तप्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते । जिनके प्रकृति, प्रत्यय, लोप, मागम तथा वर्ण-धिकार अव्याख्यात हैं, ऐसे गोणादि शब्द निपात से सिद्ध होते है। यथा-गो = गौणो; गावी, गाव: = गावीमो; पलीव = बइल्लो; मापः = आऊः, पंचपंचाशत् = पंचावण्णा, पणपन्ना, व्युत्सर्गः = विउसगौ; व्युत्सर्जनम् = पोसिरणम्', वहिमैथुनं वा = बहिद्धा; अपस्मार: = बम्हलो; उत्पलम् = कन्तुळं; धिकधिक् = छि छि; स्थासकः = चचिचक्क; निलया = निहेलणः जन्म = जन्मणं; क्षुल्लकः = खुडो, कुतूहलम् = कुटु'; विष्णुः = मट्टिओ; श्मशनम् = करसी; असुराः = अगया; पोष्यं रमः = तिगिच्छि; विनम् = अल्लं, समर्थः = पक्कलो; पण्डकः = णेलच्छो; कर्पासः = पलही; बली = उज्जलो, ताम्बूलम् = झसुरं; पुंश्चलो = छिछई; शाखा = साहुली, इत्यादि।
कथर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ॥४॥२॥ कथेर्धातोर्वज्जरायो मादेशा वा भवन्ति। कथ धातु से (विकल्प से) वज्जय नादि दश आदेश होते हैं । से-वजारइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसुणइ, संघई, बोल्लइ, चवह, जम्पइ, सीसइ, साहइ,
१. मित्रववागमः, शत्रुबदादेशः।
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