________________
१३८ ]
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ____ स्पष्ट है, आचार्य सिद्धषि संस्कृत को दुविदग्ध लोगों के हृदय में स्थिति मानते हैं । प्राकृत उनकी दृष्टि में बालकों द्वारा भी समझे जा सकने योग्य है और कर्णप्रिय है। कोश के अनुसार दुर्विदग्ध' का अर्थ पण्डितंमन्य या गर्विष्ठ है। परम्परया यह शब्द श्रेयान् अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका प्रयोग दम्भिता या अलंकारिता जैसे कुत्सित अर्थ में है। यद्यपि आचाय' सिद्धर्षि का यह विश्वास था कि प्राकृत सर्वलोकोपयोगी भाषा है, पर, वे यह भी जानते थे कि पाण्डित्याभिमानी जनों को प्राकृत में रचा ग्रन्थ रुचेमा नहीं। कारण स्पष्ट है, उनका समय ( १० वी, ११ वीं शती ) उस प्रकार का था, जब प्राकृत का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका था और प्रन्थकार सिद्धान्ततः प्राकृत की उपयोगिता मानते हुए भी संस्कृत को और झुकते लगे थे। ऐसा करने में उनका यह आशय प्रतीत होता है कि उनकी रचना विद्वज्जनों में समाहत बने; अतएव संस्कृत में; जो Lingua franca का रूप लिये हुए पी, प्रचना करने में उन्हें गौरव का अनुभव होता था। दूसरी बात यह है कि प्राकृत को जो सर्वजनोपयोगी भाषा कहा जाता था, वह उसके अतीत की झलक थी। उस समय प्राकृत भी संस्कृत की तरह दुर्बोध हो गयी थी। दुर्बोध होते हुए भी संस्कृत के पठन-पाठन की परम्परा तब भी अक्षुण्ण थी। प्राकृत के लिए ऐसा नहीं था; अतः संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कुछ अर्थ हो सकता था, जब की प्राकृत में लिखना उतना भी सार्थक नहीं था। ऐसे कुछ कारण थे, कुछ स्थितियां थीं, जिनसे प्राकृत भाषा वास्तव में लोक-जीवन से इतनी दूरा चलो गई कि उसे गृहीत करने के लिए संस्कृत का माध्यम अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक हो गया।
संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति बताने में याकरण जिस प्रवाह में बहे हैं, उस स्थिति की एक झलक हमें आचार्य सिद्धषि की उपयुक्त उक्ति में दृष्टिगत होती है। यही प्रवाह आगे इतना वृद्धिंगत हुआ कि लोगों में यह धारणा बद्धमूल हो गयी कि संस्कृत प्राकृत का मूल उद्गम है।
पं० हरगोबिन्दास टी० सैठ ने प्राकृत की प्रकृति के सम्बल 4 उक्त माघार्थों * विचारों का समीक्षण और पर्यालोधन करने के अनन्तय प्राकृत की जो व्युत्पत्ति की है, वह पठनीय है। उन्होंने लिखा है- “प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्" अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् ।" यह वास्तव में संमत प्रतीत होती है। प्राकृत के देश्य शब्द : एक विचार
प्राकृत में जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, प्राकृत पेयाकरणों ने उन्हें तीन भागों में बांटा है :
१. शानलबदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रंजयति ।
-भर्तृहरिकृतनीतिशतक, ३ २. पाइपसहमहण्णबो; प्रथम संस्करण का उपोद्घात्, पृ० २३
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org