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१३६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ तथ्य पर बल देना चाहते है कि प्राकृत पूर्वधर्ती है तथा संस्कृत तत्पश्चाद्व: । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उनके विचार महत्वपूर्ण और मननीय हैं। पूर्वोद्धत वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के टीकाकारों से ये मेल नहीं खाते। नमि साधु प्रायः इन सभी से पूर्ववर्ती थे।
राजशेखर जैसे अजेन विद्वानों ने भी इसी ओर इंगित किया है। उनका समय लगभग नौवीं ईस्वी माना गया है। बाल रामायण में एक प्रसंग पर वे लिखते हैं :
यद् योनिः किल संस्कृतप्य सुदृशां जिह्वासु यन्मोदते, यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कदुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्य चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वधः,
ताल्लाटल्लिलितांगि पश्य नुदती दृष्टेनिमेषव्रतम् ॥ जो संस्कृत का उत्पत्ति-थान है, सुन्दर नयनों वाली नारियों को जिह्वाबों पर जो प्रमोद पाती है, जिसके कान में पड़ने पर अन्य भाषाओं के अक्षरों का रस कडुमा लगने लगता है, जिसका सुललित पदों वाला गद्य कामदेव के मद जैसा हृद्य है, ऐसी प्राकृत भाषा जो बोलते हैं, उन लाट देश ( गुजरात ) के महानुभावों को हे सुन्दरि! अपलक नयनों से देख । __प्राकृत की विशेषताओं के वर्णन के सन्दर्भ में राजशेखर ने इस उल्लेख में प्राकृत को जो संस्कृत की योनि-प्रकृति या उद्गम-स्रोत बताया है, भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है।
गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत की महत्ता और विशेषता के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका उल्लेख किया ही जा चुका है। उन्होंने प्राकृत को सभी भाषाओं का उद्गम-स्रोत' बताया है। प्राकृत के सन्दर्भ में उन्होंने एक बात और कही है, जो भाषा-विज्ञान की दृष्टि
१. बाल रामायण, ४८-४९ २. सयलाओ इमं पाया विसंति एतो पन्ति वायाओ। एन्ति समुद्द चिप गेन्ति सायराओ च्चिय जलाई॥
-गउडवहो, कवि-प्रशंसा, ९३ ( सफला एतद् वाचो विशन्ति इतश्च निर्यान्ति वाचः। आयान्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि ॥) इस (प्राकृत) भाषा में सब भाषाएं प्रवेश पाती हैं। इसी से सब भाषाएं निकलती हैं। पानी समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही ( वाष्प के रूप में) निकलता है।
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