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और साहित्य ]
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं'
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meerrst हि भगवन्तोऽधर्मागधीभाषा वारिवविमुक्तवारिवद् आश्रयानुरूपतया परिणमति । " इस तथ्य को और पुष्ट करने के लिए वे निम्नांकित पद्य भी वहीं उद्धत करते हैं :
देवा देवीं नरा नारी शबराश्चापि शावरीम् ।
तिर्यचो ऽपि हि सैरश्वों मेनिरे भगवद्गिरम् ॥
आचार्य हेमचन्द्र द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या में किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि वे संस्कृत को कृत्रिम भाषा मानते थे । प्राकृत उनकी दृष्टि में अकृत्रिम —- स्वाभाविक या प्राकृतिक भाषा थी। अस्तु, इस विचारधारा में विश्वास रखने वाला मनीषी यह स्थापना कैसे कर सकता है कि प्राकृत संस्कृत से निकली है ।
आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती महान् नैयायिक एवं कषि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी इस प्रकार उल्लेख किया है : अकृत्रिमस्वादुपदेर्जनं जिनेन्द्रः साक्षाविवपासि भाषितैः । " आचार्य हेमचन्द्र ने इसी परम्परा का अनुशरण किया है। यहां तक कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों को भी यथावत् रूप में स्वीकार किया है ।
सुप्रसिद्ध अलंकार शास्त्री नमि साधु ने महाकवि रुद्रट के काव्यालंकार पर अपने द्वारा रची गई वृत्ति में द्वितीय अध्याय के १२ वें श्लोक की व्याख्या करते हुए जहां 'प्राकृत' शब्द आया है, विवेचन किया है : "सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव दा प्राकृतम् । ""प्राक् पूर्व कृत प्राकृतं बालमहिलाfayari सकलभाषा निबन्धभूतं वचनमुध्यते ।"3
नमि साधु ने यह भी उल्लेख किया है कि जिस प्रकार बादल से गिया हुआ पानी यद्यपि एक रूप होता है, पर, भूमि के भेद से वह अनेक रूपों में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार वह ( प्राकृत भाषा ) अनेक रूपों में परिणत हो जाती है । वही पाणिनि आदि के व्याकरण के नियमों से संस्कार पाकर -- सम्मार्जित होकर संस्कृत कहलाती है । 4
नमि साधु उक्त विशेषण के सन्दर्भ में एक बात की और चर्चा करते हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण है । वे कहते हैं : मूल ग्रन्थकार आचार्य रुद्रट ने विवेचन-क्रम के मध्य प्राकृत का पहले तथा-संस्कृत आदि का बाद में निर्देश किया है। यह स्पष्ट है, इस प्रकार कहकर वे इस
१. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका; १।१८
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प्राकृत - संस्कृत-मागध-पिशाचमाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥
पाइ असद्द महण्णवो, उपोद्घात, पृ० २४
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"मेघनिर्मुक्त जलमिवैकस्वरूपं तदेव विमेदानाप्नोति ।
व्याकरणोदित शब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।
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अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तद्नुसंस्कृतादीनि ।
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पाणिन्यादि
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