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भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' एक विशेष भाशय प्रतीत होता है। ये वैयाकरण तथा काव्यशास्त्रीय टीकाकार प्रायः प्राकृत-काल के पश्चाद्वर्ती हैं। इनका समय अपभ्रशों के अनन्तर आधुनिक भाषाओं के उद्गम तथा विकास के निकट का है। तब प्राकृत का पठन-पाठन लगभग बन्द हो गया था। यहां तक कि प्राकृत को समझने के लिए सस्कृत-छाया से काम लेना पड़ता था। पुरातन भाषाओं के सीखने का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इसका मुख्य कारण यह है कि संस्कृत यद्यपि लोक-भाषा का रूप कभी भी नहीं ले सकी, परन्तु, भारत की आर्यभाषाओं के आदि-काल से लेकर अनेक शताब्दियों तक यह भारत में एक शिष्ट भाषा के रूप में प्रवृत्त रही। इस दृष्टि से उसकी व्याप्ति और महत्व क्षीण नहीं हुआ। तभी तो काल-क्रमवश जन-जन के लिए अपरिचित बनी प्राकृत जैसी भाषा को, जो कभी सबंजनप्रचलित भाषा थी, समझने के लिए संस्कृत जैसी शिष्ट भाषा का अवलम्बन लेना पड़ा। सम्भवतः प्राकृत-वैयाकरणों के मन पर इसी स्थिति का असर था। यही कारण है कि उन्होंने प्राकृत का आधार संस्कृत बताया। यहां तक हुआ, जैन विद्वान्, जैन श्रमण, जिनका मौलिक वाङमय प्राकृत में रचित है, अपने आर्ष ग्रन्थों को समझने में संस्कृत छाया और टीका का सहयोग आवश्यक मानने लगे थे।
आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के सम्बन्ध में कुछ और विशेषता बापनीय है। आचार्य हेमचन्द्र ने कोई स्वतन्त्र प्राकृत-व्याकरण नहीं लिखा। उन्होंने सिद्धहेमशब्दानुशासन के नाम से वृहत संस्कृत-व्याकरण की रचना की। उसके सात अध्यायों में संस्कृत-प्याकरण के समग्र विषयों का विवेचन है। आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण का वर्णन किया गया १. आचार्य हेमचन्द्र की व्याकरण-रचना के सम्बन्ध में एक घटना है। गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह गुर्जरदेश को काश्मीर, काशी और मिथिला को तरह संस्कृत-विधा का प्रशस्त पीठ देखना चाहता था। उसने अपने राज्य के विद्वानों से यह अनुरोध किया कि वे एक नूतन व्याकरण की रचना करें, जो अपनी कोटि को अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति हो। सिद्धराज जयसिंह को विशेषतः यह प्रेरणा तब मिली, जब उसने अपने द्वारा जीते गये मालव देश के लूट के माल में आये एक ग्रन्थ-भण्डार की गवेषणा करवाई। उसमें धाराधीश भोज द्वारा रचित एक व्याकरण-ग्रन्थ पर सिद्धराज की दृष्टि पड़ी, जिस (अन्य) की पण्डितों ने बड़ी प्रशंसा की। सिद्धराज को साहित्यिक स्पर्धा जगी। फलतः उसने विद्वानों से उक्त अनुरोध किया। सिद्धराज को राजसमा में माचार्य हेमचन्द्र का सर्वातिशायी स्थान था। ये अप्रतिम प्रतिमा के धनी थे, अनेक विषयों के मार्मिक विद्वान् थे। प्रभावकवरित में इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
सर्वे सम्भूय विद्वान्सो, हेमचन्द्र व्यलोकयन् । महामस्या राज्ञासावभ्यर्च्य प्रार्थि ( तस्तता) ॥
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