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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो उनके समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही । ऊष, तेरा, चक्र तथा पेच; इन चार शब्दों को उन्होंने उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है । उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, ते के स्थान पर तोर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है । "
"
इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे पुनः लिखते हैं: "हो सकता हैं, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों—स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों। उन्हें प्राप्त करने का यत्न कीजिए। शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल है । यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है । चार वेद हैं । उनके छह अंग हैं । उसके रहस्य या तत्त्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएं हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। सामवेद की एक हजार मार्ग - परम्पराएं हैं। ऋग्वेदियों के आम्नाय - परम्पराक्रम इक्कीस प्रकार के हैं । अथववेद नौ रूपों में विभक्त है । वाकोवाक्य ( प्रश्नोत्तरात्मक ग्रन्थ ) इतिहास, पुराण, आयुर्वेद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं । शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना इस प्रकार कहना कि अमुक शब्द अपयुक्त हैं, केवल दुःसाहस है 12
पतंजलि के उपयुक्त कथन में मुख्यतः दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं । एक यह है - संस्कृत के कतिपय शब्द लोक भाषाओं के ढांचे में ढलते जा रहे थे। उससे उनका व्याकरण-शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता ? लोक भाषाओं के ढांचे में ढला हुआ - किंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर वे बल देते हैं; क्योंकि
१. अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दानां न्याय्यः । कुतः प्रयोगान्यत्वात् । यदेषां शब्दानामर्थेऽ न्याञ्छन्दान्प्रयुंजते । यद्यथा ऊषेत्यस्य शब्दस्यार्थे षव यूयमुषिताः, तेरेत्यस्यार्थे क् यूयं तीर्णाः, चक्र त्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्तः, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति । - महाभाष्य; प्रथम आह निक, पृ० ३१
२. सर्वे खल्बप्येते शरदा देशान्तरेषु प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् । महाञ्छब्दस्य प्रयोग विषयः । सप्तद्वोपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदा: सांगा : सरहस्या:, बहुधा भिन्ना एकादशमध्वर्युशाखा:, सहस्रवर्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह-वृच्यं, नवधाऽथर्वणो वेद:, वाकोवाक्यम्, इतिहास, पुराणम्, वैद्यकमित्येतावाञ्छन्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमानमेव ।
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-वही, पृ० ३२-३३
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