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१२६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ कोई रूप रहें होंगे, जिनके विकास के रूप में इनका उद्भव हुआ। वैदिक काल के पूर्व की ओर समवर्ती जन-भाषाओं को सर जाजं नियसन ने प्राथमिक प्राकृतों ( Primary Pras) के नाम से उल्लिखित किया है। इनका समय ई० पू० २००० से ई० पू० ६०. .. माना जाता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्राथमिकता प्राकृतें स्वरों एवं . .नों के उच्चारण, विभक्तियों के प्रयोग आदि में वैदिक भाषा से बहुत समानताए रखती थीं। इन भाषाओं से विकास पाकर उत्तरधर्ती प्राकृतों का जो साहित्यिक रूप अस्तित्व में आया, उससे यह प्रमाणित होता है। __ महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में व्याकरण या शब्दानुशासन के प्रयोजनों की चर्चा की है। दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करने पर बल देते हुए उन्होंने श्लोक उपस्थित किया है :
पस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे, शब्दान् यथावद् व्यवहार काले। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।।
अर्थात् जो शब्दों के प्रयोग को जानता है, वैसा करने में कुशल है, वह व्यवहार के समय उनका यथोचित प्रयोग करता है, वह परलोक में अनन्त जय-उत्कर्ष-अभ्युदय प्राप्त करता है। जो अपशब्दों का प्रयोग करता है, वह दूषित-दोष-भागी होता है।
दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की ओर संकेत करते हुए आगे वे कहते हैं : एक-एक शब्द के अपभ्रश हैं। जैसे, गौ शब्द के गावो, गौणी, गोपोतलिका इत्यादि हैं।
अपभ्रंश शब्द का यहां प्रयोग उन भाषाओं के अर्थ में नहीं है, जो पांचवीं शती से लगभग दशवीं शती तक भारत ( पश्चिम, पूर्व, उत्तर और मध्यमण्डल ) में प्रसृत रहीं, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकसित रूप थीं। यहां अपनश का प्रयोग संस्कृतेतर लोकभाषाओं के शब्दों के लिए है, जिन्हें उस काल को प्राकृतें कहा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है, तब लोक-भाषाओं के प्रसार और प्रयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चला हो। उनके शब्द सम्भवतः वैदिक और लौकिक संस्कृत में प्रवेश पाने लग गये हों; अतः भाषा की शुद्धि के पक्षपाती पुरोहित विद्वान् उस पर रोक लगाने के लिए बहुत प्रयत्नशील हुए हों। पतजलि के विवेचन की ध्वनि कुछ इसी प्रकार की प्रतीत होती है।
१. महाभाष्य, प्रथम आह निक, पृ० ७ २. एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः। अद्ययागौरित्येतस्य शब्दस्य गावी गोणी गोपोतलिकेत्येवमादयो । पनशाः।
-महाभाप्य, प्रथम आह निक, पृ० ८
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