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भाषा और साहित्य ]
प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं
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यह भी ज्ञातव्य है कि तब से नाम प्रधान शैली क्रिया-प्रधान शैली का स्थान लेने लग गयी थी । एक ही बात को विभिन्न प्रकार से यथावत् रूप में व्यक्त कर सकने की संस्कृत की अपनी अनुपम विशेषता तो इससे सिद्ध होती ही है ।
दर्शन, तर्क और भाष्य-सम्बन्धी ग्रन्थों में क्रिया-प्रधान शैली का विशेष विकास हुआ । इतिहास, पुराण, स्मृति आदि ग्रन्थ नाम प्रधान शैली में लिखे गये । गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन-रचित भाष्य, मीमांसासूत्रों पर जेमिति द्वारा रचित शाबर भाष्य श्रोत सूत्रों के अन्यान्य भाष्यों में नाम प्रधान शैली का व्यवहार हुआ है । वहां रचना में सरलता और सजीवता है । पर, आगे चलकर नव्य न्याय के युग तक पहुंचते-पहुंचते यह शैली बहुत कठिन तथा दुरूह हो गयी । क्रियाओं का प्रयोग बहुत कम हो गया । विभक्तियों में भी प्रायः प्रथमा और पंचमी का ही अधिक प्रयोग होने लगा । जैसे - इयं पृथिवी, गन्धवत्वात, अयमग्निः, धूमवत्वात् इत्यादि । कहने का आशय यह है कि विचाराभिव्यक्ति का माध्यम विशेषण और भाववाचक संज्ञाएं ही रह गयीं । अव्ययों का प्रयोग भी लुप्त जैसा हो गया ।
संस्कृत के पंडित आज भी विशेषतः नैयायिक विद्वान् शास्त्रार्थ में इसी शैली का उपयोग करते हैं । पाण्डित्य तो इसमें अवश्य ही है, पर, लोकोपयोगिता नहीं है; क्योंकि इसमें भाषा की सहजता के स्थान पर पाण्डित्य प्रदर्शन के निमित्त सर्वथा कृत्रिमता दृष्टिगोचर होती है ।
संस्कृत का विशाल वाङ्मय
वैदिक और लौकिक संस्कृत के बीच के काल की दो महान् रचनाएं हैं— रामायण और महाभारत । ये ऐतिहासिक महाकाव्य कहे जाते हैं । रघुवंश, कुमारसम्भव, शिशुपालबध, किरातार्जुनीय, अभिज्ञान शाकुन्तल, उत्तररामचरित, अनर्धराघव जैसे अनेकानेक महत्वपूर्ण काव्यों और नाटकों के ये ही उपजीव्य रहे हैं । इनकी भाषा लौकिक संस्कृत के काफी सहा है, पर शब्दों के प्राचीन रूप, शैली की सरलता, आत्मनेपद तथा परस्मैपद की विभक्तियों के विशेष भेद के बिना धातुओं के रूपों का स्वतन्त्र प्रयोग आदि अनेक ऐसे पहलू भी हैं, जिनके कारण इनकी भाषा वैदिक संस्कृत के भी निकट है । भाषा की दृष्टि से दोनों को जोड़ने बाली कड़ी के रूप में इन्हें स्वीकार किया जा सकता है। दोनों ग्रन्थ तत्कालीन भारतीय संस्कृति, लोक-जीवन, सामाजिक परम्परामों और नीतियों के सजीव चित्र उपस्थित करते हैं ।
इतिहास, आख्यान, पुराण जैसे शब्द वैदिक काल से ही चले आ रहे हैं । वैदिक साहित्य में पुरुरवा व उर्वशी तथा शुनः शेष आदि के कथानक प्राप्त हैं, जो मानव की इतिवृत्तात्मक सर्जन की अभिरुचि के सूचक हैं।
इतिहास की एक विशेष व्याख्या प्राचीन काल से स्वीकृत है । उसके अनुसार जिसमें
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