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भाषा और साहित्य } प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं
[ १०७ पुराकालीन आय-भाषा के वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृत के रूप में एक नूतन आकारप्रकार लेने के पीछे कई कारण रहे होंगे। उनमें एक कारण यह भी हो सकता है कि वैदिक भाषा मुख्यतः ऋग्वेद की भाषा स्थिर बन गयी थी। उसके समकालीन अन्य आर्य-भाषाए, जो देश-भेद से बोलचाल में प्रयुक्त होती थीं, क्रमशः कालानुसार बदलती गयीं, विकसित होती गयों, अर्थात् विकास, जो किसी भाषा की जीवितता का लक्षण है, विद्यमान रहा। वैदिक भाषा में यह सम्भब नहीं था । फलतः यह जन-सामान्य से दूर होती गयी। ऐसा होते हुए भी राष्ट्र में उसका साहित्यिक महत्व था, इसलिए उसका अध्ययम-अध्यापन अवरुद्ध नहीं हुभा। फिर भी साहित्यिक भाषा के रूप में वेदिक भाषा के एक सरल, संक्षिप्त तथा सुबोध्य रूप की अपेक्षा थी। फलतः लौकिक संस्कृत का अभ्युदय हुआ।
घेदिक और लोकिक संस्कृत के जो भेदमूलक तथ्य उपस्थित किये गये हैं, उनसे स्पष्ट है कि लौकिक संस्कृत वैदिक संस्कृत का सरलीकृत रूप है। वैदिक संस्कृत में जहां रूपों की बहुलता और वैकल्पिकता की प्रचुरता थी, लोकिक संस्कृत में उनका लोप या संक्षिप्तीकरण हुमा । वैदिक भाषा से सम्बन्ध जन-समुदाय के वंशजों ने इस नूतन भाषा को अपना लिया। यह उन आर्यों की साहित्यिक भाषा बन गयी, जो भारतवर्ष में दूर-दूर तक फैले हुए थे। ___ उत्तर की या उत्तर-पश्चिम की जन-भाषा सम्भवतः लौकिक संस्कृत का मुख्य मापार रहो हो । फलतः भाषा की शुद्धि, स्तर आदि की दृष्टि से उत्तर का वैशिष्ट्य माना जाता है। कहा गया है-उत्तर दिशा का भाषा-प्रयोग अधिक वेदुष्य-पूर्ण है । भाषा या वाणी की शिक्षा लेने के लिए लोग उत्तर को जाते हैं। अथवा जो विद्वान उत्तर से आते हैं, विद्योत्सुक जन उनसे पाणी के सम्बन्ध में श्रवण करते हैं।
उत्तर के लोगों द्वारा पाणी के शुद्ध प्रयोग करने की जो चर्चा की गयी है; यह सम्राट अशोक के उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों से भी प्रकट होती है। एक समय था, काश्मीय संस्कृत विद्या के सर्वप्रधान केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित था। संस्कृत-वाङमय के अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थों का वहाँ प्रणयन हुआ । उपर्युक्त निरूपण इससे समर्थित होता है।
मध्यवर्ता रूप
वैदिक और लौकिक संस्कृत की भेद-रेखाओं का जो विवरण उपस्थित किया गया है, उस प्रकार की भिन्नता दोनों भाषाओं के मध्य एक ही बार में नहीं हो पाई थी। क्रमशः वंसा होता गया, जिसकी परिणति लौकिक संस्कृत के व्याकर नियन्त्रित, परिनिष्ठित रूप में हुई । इस परिवर्तन-क्रम के तीन स्तर माने जा सकते हैं। भारतीय माय-भाषा पा
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